*पूस की रात*
ओस भर कर दूब बैठी
धूप का कब हो सबेरा
शीत रातों को डराए
हड्डियां भी काँपतीं हैं
अब सड़क देखे व्यथा से
आस कंबल ढाँपतीं हैं
ओढ़ता चादर तिमिरमय
साँझ का मध्यम अँधेरा।।
आग उपलों को तरसती
नीति सरकारी रही है
योजना के छिद्र कहते
चाय त्योहारी रही है
अल्पना के रंग सूखे
रैन का कब हो बसेरा ।।
श्वान चौराहे पड़ा है
चाहता वो ताप थोड़ा
जब मनुजता दुरदुराती
आग ने कब साथ छोड़ा
पूस की जो रात ठंडी
घाव टोपी का उधेरा।।
अनिता सुधीर आख्या