भाव उकेरे काष्ठ में, कलाकार का ज्ञान।
हस्तशिल्प की यह विधा,गाती संस्कृति गान।।
वृक्षों पर आरी चली,बढ़ा काष्ठ उपयोग।
कैसे शीतल छाँव हो, कैसे रहें निरोग।।
ठंडा चूल्हा देख के, आंते जातीं सूख।
अग्नि काष्ठ की व्यग्र है,शांत करें कब भूख।।
छल कपटी व्यवहार से,क्यों रखते आधार।
नहीं काष्ठ की हाँडियाँ, चढ़तीं बारंबार।।
सजे चिता जब काष्ठ की, पावन हों सब कर्म।
गीता का उपदेश यह, समझें जीवन मर्म।।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी आभार
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (31-10-21) को "गीत-ग़ज़लों का तराना, गा रही दीपावली" (चर्चा अंक4233) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार आ0
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी धन्यवाद
Deleteसुंदर सार्थक रचना।सखी।
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteजी धन्यवाद
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