Friday, October 22, 2021

मंथरा


 मंथरा घर-घर विराजी

झूठ थिर-थिर नच गया


वृक्ष की मजबूत टहनी

भाग्य पर इठला रही

नित कुटिलता जड़ हिलाती

वेदना है अनकही

पात फँसते चाल में जो

बंधनों का सच गया।।


कान कौवा ले उड़ा जो

दौड़ कर क्यों काग पकड़े

भरभरा विश्वास गिरता

प्रेम को जब लोभ जकड़े

सोच कुबड़ी जीतती जो

पल अकेला बच गया ।।


चाल चलकर काल निष्ठुर

ओढ़ चादर सो रहा

पीप की दुर्गंध सह कर

घाव रिसता रो रहा

मेहंदी भीगी पलक से

और अम्बर रच गया।।

10 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (23 -10-2021 ) को करवाचौथ सुहाग का, होता पावन पर्व (चर्चा अंक4226) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. अत्यंत संवेदनशील एवं सटीक शब्दावलीमें सार्थक सृजन 🙏🏼💐

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  3. जी हार्दिक आभार

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  4. गहन भाव बोध से युक्त सार्थक नवगीत। हार्दिक बधाई।💐

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  5. अत्यंत संवेदनशील🙏🙏

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  6. धन्यवाद गुंजित

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  7. हार्दिक आभार आ0

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