मेरे संग्रह देहरी गाने लगी से...
*पिता*
भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता
पाँव नन्हें याद में अब
स्कन्ध का ढूँढ़े सहारा
उँगलियाँ फिर काँध चढ़ कर
चाहतीं नभ का किनारा
प्राण फूकें पाँव में वो
सीढ़ियाँ नभ तक बनाता।।
जोड़ता संतान का सुख
भूल कर अपनी व्यथा को
जब गणित में वो उलझता
तब कहें जूते कथा को
फिर असीमित बाँटने को
सब खजाना वो लुटाता।।
छत्रछाया तात की हो
धूप से जीवन बचाते
दुख बरसते जब कभी भी
बाँध छप्पर छत बनाते
और अम्बर हँस पड़ा फिर
प्यास धरती की बुझाता।।
अनिता सुधीर
स्कंध का ढूंढे सहारा, बहुत उम्दा
ReplyDeleteधन्यवाद जी
Delete👍🙏
ReplyDeleteउंगलियाँ फ़िर काँध चढ़कर, चाहतीं नभ का किनारा🙏🙏 भावों से भरपूर 🙏🙏👏
ReplyDeleteधन्यवाद गुंजित
Deleteबहुत सुन्दर अच्छा है👌👌👌👌👌
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-10-2021) को चर्चा मंच "शरदपूर्णिमा पर्व" (चर्चा अंक-4223) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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शरद पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर अभिवादन आ0
Deleteअत्यंत भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी सृजन 💐🙏🏼
ReplyDeleteजी धन्यवाद
Deleteजी आभ्गर
ReplyDeleteबहुत सुंदर 👌
ReplyDeleteजी आभ्गर
Deleteअरे! इतना सुंदर गीत! माता की महिमा पर तो बहुत कुछ लिखा गया है एवं लिखा जाता है लेकिन पिता पर ऐसे भावभीने गीत बहुत कम देखने को मिलते हैं। ऐसे उत्कृष्ट गीत के सृजन हेतु आपका असीमित अभिनन्दन।
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया से असीम आनंद आ गया
Deleteपिता के लिए अत्यंत भावपूर्ण सृजन 👏👏👏🌹🌹🌹
ReplyDeleteहार्दिक आभार सरोज जी
DeleteVery nice 👍
ReplyDeleteजी आभ्गर
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी सादर आभार
Deleteसखि हृदय स्पर्शी सृजन,अंतस तक उतर गया।
ReplyDeleteसुंदर।
आभ्गर सखि
Deleteवाह वाह
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