*मेरे गगन तुम*
मैं धरा मेरे गगन तुम
अब क्षितिज हो उर निलय में
दृश्य आलिंगन मनोरम
लालिमा भी लाज करती
पूर्णता भी हो अधूरी
फिर मिलन आतुर सँवरती
प्रीत की रचती हथेली
गूँज शहनाई हृदय में।।
धार इठलाती चली जब
गागरें तुमने भरीं है
वेग नदिया का सँभाले
धीर सागर ने धरी है
नीर को संगम तरसता
प्यास रहती बूँद पय में।।
नभ धरा को नित मनाता
फिर क्षितिज की जीत होती
रंग भरती चाँदनी तब
बादलों से प्रीत होती
भास क्यों आभास का हो
काल मृदु हो पर्युदय में।।
अनिता सुधीर
बहुत सुन्दर सारा परिवेश आज प्रेममय और मंगल मय रहे इसी कामना के साथ बधाई हो !
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद उषा
DeleteBahut khoob 👌
ReplyDeleteधन्यवाद चंचल
DeleteBhut sunder .gajab ke shabd likhe hain.mai nishabd ho gai
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteआपका नाम नही आ रहा
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना अनीता जी।
ReplyDeleteमैं धरा तुम मेरे गगन *बहुत सुंदर*
ReplyDelete*"फिर मिलन आतुर सँवरती*
*प्रीत की रचती हथेली*
*गूँज शहनाई हृदय में"*. अतिसुंदर
करवाचौथ पर बहुत ही सुन्दर रचना
धन्यवाद भैया
Deleteअहा! करवाचौथ के पावन अवसर पर इतना सुंदर मुग्ध करता नवगीत।प्रेम समर्पण से ओतप्रोत।
ReplyDeleteकरवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाएं।
धन्यवाद सखि
Deleteदाम्पत्य प्रेम को दर्शाती हुई मनमोहक रचना 😍🙏🏼💐
ReplyDeleteजी धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत सुन्दर 👌🏽👌🏽भावपूर्ण
ReplyDeleteजी धनयवाद
Deleteबहुत ही सुंदर🙏🙏
ReplyDeleteधन्यवाद गुंजित
Deleteअत्यंत मनभावन सृजन ❤❤❤
ReplyDeleteधन्यवाद सरोज जी
Deleteमनोरम
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर सखी सुन्दर रचना 👌👌👌
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