चित्रकार की तूलिका,भरे गगन में रंग।
सूर्य उदय की लालिमा,रचती नवल प्रसंग।।
नित्य स्वप्न भी जागते,सूर्योदय के संग।
कनक रश्मियाँ घट लिए,भरे स्वप्न में रंग।।
चित्रकार की तूलिका,भरे गगन में रंग।
सूर्य उदय की लालिमा,रचती नवल प्रसंग।।
नित्य स्वप्न भी जागते,सूर्योदय के संग।
कनक रश्मियाँ घट लिए,भरे स्वप्न में रंग।।
शरद पूर्णिमा की रात में
अमृत बरसता रहा ,
स्कन्द माता के चरणों में पुष्प
पंचम तिथि माँ स्कंद का,पूजन नियम विधान है।
भक्तों का उद्धार कर, करतीं कष्ट निदान है।।
तारकसुर ब्रह्मा जपे, माँग लिए वरदान में।
अजर-अमर जीवित रहूँ,मृत्यु न रहे विधान में।।
संभव ये होता नहीं,जन्म मरण तय जानिये।
शिव-सुत हाथों मोक्ष हो,मिले मूढ़ को दान ये।।
मूर्ति वात्सल्य की सजे,कार्तिकेय प्रभु गोद में।
संतति के कल्याण में,जीवन फिर आमोद में।।
सिंह सवारी मातु की,चतुर्भुजी की भव्यता।
शुभ्र वर्ण पद्मासना,परम शांति की दिव्यता।।
जीवन के संग्राम में,सेनापति खुद आप हैं।
मातु सिखाती सीख ये, बुरे कर्म से पाप हैं।।
ध्यान वृत्ति एकाग्र कर,शुद्ध चेतना रूप से।
पाएं पुष्कल पुण्य को,पार लगे भवकूप से।।
अनिता सुधीर
गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएं
गणेश वंदना (चामर छन्द)
**
रिद्धि सिद्धि साथ ले गणेश जी पधारिये।
ग्रंथ हाथ में धरे विधान को विचारिये।
देव हों विराजमान आसनी बिछी हुई।
थाल में सजा हुआ सुभोग तो लगाइये।।
प्रार्थना कृपा निधान कष्ट का निदान हो
भक्ति भाव से भरा सुजान ही प्रधान हो ।
मूल तत्व हो यही समाज में समानता,
हे दयानिधे! दया ,सुकर्म का बखान हो ।।
ज्ञान दीजिये प्रभू अहं न शेष हो हिये।
त्याग प्रेम रूप रत्न कर्म में सदा जिये।
नाम आपका सदा विवेक से जपा करें,
आपका कृपालु हस्त शीश पे सदा लिये।।
अनिता सुधीर आख्या
तुम्हारी आँखों में...
गजल
जीवन का मनुहार, तुम्हारी आँखों में।
परिभाषित है प्यार, तुम्हारी आँखों में।।
छलक-छलक कर प्रेम,भरे उर की गगरी।
बहे सदा रसधार, तुम्हारी आँखों में।।
तुम जीवन संगीत, सजाया मन उपवन
भौरों का अभिसार, तुम्हारी आँखों में।।
पूरक जब मतभेद, चली जीवन नैया
खट्टी-मीठी रार, तुम्हारी आँखों में।।
रही अकिंचन मात्र, मिला जबसे संबल
करे शून्य विस्तार, तुम्हारी आँखों में।।
किया समर्पण त्याग, जले बाती जैसे
करे भाव अँकवार, तुम्हारी आँखों में।।
जीवन की जब धूप, जलाती थी काया
पीड़ा का उपचार, तुम्हारी आँखों में।।
अनिता सुधीर आख्या
राग-विराग सुभाव लिए ,दृग लाज भरे वृषभानु सुता।
मोहन साज सँवार करें, वह भूल गए अपनी नृपता।।
प्रीत भरें वह कुंज गली,निखरी तब कृष्ण सखा पृथुता ।
दिव्य अलौकिक दृश्य लिए,हिय में बसती प्रभु की प्रभुता।।
अनिता सुधीर आख्या
गोविंद
भाद्र मास की अष्टमी, कृष्ण लिए अवतार।
अद्भुत लीला श्याम की, खुलते कारा द्वार।।
खुलते कारा द्वार, चले तात शिशु को लिए।
यमुना नीर अपार, शेषनाग छाया किए।।
रास रचैया गोकुल आए।
पालनहारे कष्ट मिटाए।।
चौपाई
**
भाद्र मास की षष्ठी आयी
हलछठ व्रत सुंदर फलदायी
जन्म दिवस दाऊ का मनता।
पोखर घर के आँगन बनता ।।
शस्त्र अस्त्र हल दाऊ सोहे ।
हलधर की मूरत मन मोहे।।
पुत्रवती महिलाएं पूजें।
मन अँगना किलकारी गूँजे।।
पूजन कर पलाश जारी का।
भोग लगा महुवा नारी का ।।
जोता बोया आज न खाए
तिन्नी चावल दधि सँग भाए।।
दीर्घ आयु संतति की करना।
आशीषों से झोली भरना ।।
वृक्ष पूजना पाठ पढ़ाता ।
संस्कृति का यह मान बढ़ाता।।
#अनिता सुधीर
पावन मंच को नमन
गीत
श्रावणी की दिव्यता से
खिल उठी सूनी कलाई।।
त्याग तप के सूत्र ने जब
इंद्र की रक्षा करी हो
या मुगल के शुभ वचन से
आस की झोली भरी हो
नेग मंगल-कामना में
थी छिपी सबकी भलाई।।
श्रावणी...
रेशमी-सी प्रीति करती
आज ये व्यापार कैसा
बंधनों के मूल को अब
सींचता है नित्य पैसा
मर्म धागे का समझना
बात राखी ने चलाई।।
श्रावणी.…
हों सुरक्षित भ्रातृ अपने
प्रार्थना यह बाँध आएँ
सरहदों पर उन अकेले
भाइयों के कर सजाएँ
भारती का मान तुमसे
हर परिधि तुमने निभाई।।
श्रावणी...
अनिता सुधीर आख्या
#cwg22india #हर_घर_तिरंगा_अभियान
जीत का विश्वास रखकर ,काल की टंकार हो तुम।
नीतियों की सत्यता में, स्वर्ण का आधार हो तुम।।
खो रहा अस्तित्व था जब, लुप्त होती भावना में,
आस का सूरज जगाए,भोर का उजियार हो तुम।।
जब छिपी सी धूप होती,तब लड़े सब बादलों से
लक्ष्य की इस पटकथा में,भाल का शृंगार हो तुम।।
साधनों की रिक्तता में,हौसले के साज रखकर
खेल की जग भावना में, प्रीति का अँकवार हो तुम।
रच रहा इतिहास नूतन,स्वप्न अंतर में सँजोये
कोटि जन के भाव कहते,देश का आभार हो तुम।।
अनिता सुधीर आख्या
गीतिका
शिल्प में उन्नत कला का जो युगों का ज्ञान है।
वो धरोहर में सजोए देश हिंदुस्तान है।।
भित्तियों पर चित्र हों या पत्थरों की मूर्तियाँ।
विश्व में अब इस कला का हो रहा गुणगान है।।
हस्त कौशल क्षेत्र में जब भाव शिल्पी ने रचे
फिर सृजन जीवंत होकर दे रहे आख्यान है।।
गूढ़ दर्शन को लिए कृतियाँ पुरानी जो गढ़ीं।
वह अलौकिक रूप में आदर्श का प्रतिमान है।।
ज्ञान तकनीकी समेटे जब पुरातन काल ने
गर्व की अनुभूति से करना अभी उत्थान है।।
यह विविध आयाम बनते सभ्यता संवाहिका
हम कला के हैं पुजारी मिल रही पहचान है।।
लोक मंगल की कला से मिल रहे आनंद में
सत्य शाश्वत सुंदरम के भाव का आह्वान है।।
अनिता सुधीर आख्या
उधम सिंह
(26 दिसंबर 1899 - 31 जुलाई 1940)
क्रांति के वीरों में, थे उधम पंजाबी शेर।
कर्ज था माटी का, फिर किए डायर को ढेर।।
राष्ट्रप्रेम की ज्वाला लेकर,इंकलाब का गाते गान।
हर बच्चा जब उधम सिंह हो,होगा भारत देश महान।।
बेबस चीखें बैसाखी की,जलियांवाला का था घाव।
लहु के आँसू बहते देखें,उधमसिंह पर पड़ा प्रभाव।।
सात समुंदर पार चले थे,लेने माटी का प्रतिशोध।
डायर को फिर मार गिराया,जिसने मारे कई अबोध।।
बीस बरस का बदला लेते,जो जलती सीने में आग।
अमर हुआ यह वीर सिपाही,देशभक्ति का गाकर राग।।
गाँव सुनाम हुआ बड़भागी,उधम सिंह को करे प्रणाम।
मिले मृत्यु से हँसते-हँसते,वीरों को देकर पैगाम।।
अनिता सुधीर
१)
शरद पूर्णिमा की रात में
अमृत बरसता रहा ,
मानसिक प्रवृतियों के द्वंद में
कुविचारों के हाथ
लग गया अमृत ...
अब वो अमर होती जा रहीं हैं...
२)
दौलत की भूख़ ने
आँखो पर बाँधी पट्टी
ईमान को बेच
मुल्क के अस्मिता
की बोली लगा
भूख ,करोड़ों अरबों की लगाई
क्या तनिक भी इन्हे लाज न आई
३)
पूजास्थलों मे दौलत
का अंबार लगा
भिखारी बाहर
भूख और ठंड से
बेहाल नजर आए,
ऐ !प्रभु के बंदे
तू अब तक दौलत का
सही उपयोग न सीख पाये ।
अनिता सुधीर आख्या
मुक्तक
कड़ा परिश्रम दिन भर करके,चार टके घर को लाया।
बोझ देखता जब कंधों पर,माथा उसका चकराया।।
चला शौक से मदिरालय फिर,घरवाली को धमकाया।
पल भर का आनंद मिला जो,खुशियां गिरवी रख आया।।
भीड़ बढ़ी मदिरालय में अब,काल आधुनिक आया है।
मातु पिता सँग बच्चे पीते,संस्कृति को बिसराया है।।
प्रेम रोग का बना बहाना,मन का दर्द मिटाया है।
अर्थ व्यवस्था टिकी इसी पर,शासन ने बिकवाया है ।।
अनिता सुधीर आख्या
युगप्रणेता मिसाइल मैन संत कलाम को
हमारा सलाम
भारत के सुपर पावर की तैयारी
मिसाइल मैन का मिशन पूरा करना हमारी जिम्मेदारी
कुशल नेतृत्व हो तो कोई काम नहीं मुश्किल..
कठिन फैसला जो लेते , पाते वही मंजिल..
कर्मठ व्यक्ति ही सपने को पूरा कर पायेगा
"शांति दूत" के साथ भारत "सुपर पावर"कहलायेगा ।
मेरी पहचान
मेरा भारत महान
बाल गंगाधर तिलक जयंती विशेष
(23 जुलाई1856 - 1 अगस्त 1920)
लोक प्रचलित नारा,
मुक्ति जन्मों का अधिकार।
बाल गंगाधर जी,
लिख गए गीता का सार।।
तेईस जुलाई धन्य रही,गाती गंगाधर गुणगान।
महाराष्ट्र के रत्नागिरी में,करने आए जब उत्थान।।
जन्म सिद्ध अधिकार रहा जो,उससे वंचित रहा समाज।
लोकमान्य उपनाम मिला जो,चाह रहे थे बाल सुराज।।
दक्कन शिक्षा समिति बनी थी,अंग्रेजी का घोर विरोध।
देवनागरी मान्य रहे अब,यही कराते सबको बोध।।
जगा रहे थे जनमानस को,दिए क्रांति का नव संदेश।
सार लिखे फिर गीता का वह,नित्य सुधार रहे परिवेश।।
पत्र केसरी आवाज बना,देश स्वतंत्र चला अभियान।
भारत के संरक्षक निर्माता,उनके अद्भुत कार्य महान।।
*विधाता छन्द*
**
हरी जब ओढ़ती चूनर,धरा शृंगार करती है।
फुहारें पड़ रहीं रिमझिम, सजा कर माँग भरती है।।
सुहाना मास सावन का, रचाती मेहंदी सखियाँ।
सताती याद पीहर की,बरसती नेह में अँखियाँ ।।
पपीहे शोर करते हैं, घटाएं जब उमड़तीं है।
अगन तन में जले जब भी, मिलन को वे तड़पतीं है।
सुनी कजरी लुभावन सी, पड़े जो बाग में झूले।
मनें त्यौहार अब सारे, पुरातन पल कहाँ भूले ।।
लिए काँवड़ चले सब जन, कि शिव का मास सावन है।
सजे मंदिर बढ़ी रौनक, रहा यह मास पावन है।।
चढ़ा कर दुग्ध की धारा, धतूरा भी चढ़ाते हैं ।
कृपा कर दो उमापति अब,लगन तुममें बढ़ाते हैं।।
अनिता सुधीर आख्या
पावन मंच को नमन
कुंडलियां
**
माया भ्रम के जाल में, भेद छिपा अति गूढ़।
जग-मिथ्या के अर्थ में, उलझी मैं मतिमूढ़।।
उलझी मैं मतिमूढ़, जगत यदि मिथ्या माना ।
परम ब्रह्म ही सत्य, कर्म की गति को जाना।।
यदि झूठा संसार, झूठ क्या मानव काया।
सत्य गुणों से जान, सगुण निर्गुण की माया।।
**
माया ठगिनी डोलती, बदल-बदल कर रूप।
धन दौलत सब चाहते, रहे रंक या भूप।।
रहे रंक या भूप, लगी तृष्णा जो मन की।
बिक जाता ईमान, मिटे पर भूख न इनकी।।
करा रही नित पाप, रुपैया जी भर खाया।
बुझी नहीं है प्यास, यही दौलत की माया।।
अनिता सुधीर
मैं अपना यह खंडकाव्य आजादी के सभी नायकों और वीर सेनानियों को समर्पित करती हूँ जिनके बलिदानी गाथा के कारण हम स्वतंत्र हवा में सांस ले रहे हैं।
पैरों में थीं बेड़ियाँ,फैला था संताप।
स्वर्ण विहग के घाव को,दूर करे थे आप।।
करूँ समर्पित आपको, खंडकाव्य यह आज।
अमिट अमर बलिदान की, रखे हृदय में छाप।।
वीर सपूतों को शत-शत नमन
आख्या अभिव्यक्ति
माँ शारदे और इष्ट देव को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ जिनके आशीर्वाद से यह मेरा खंडकाव्य
स्वर्ण विहग के घाव (कुछ पन्ने इतिहास के)
आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर और अमृत महोत्सव की शृंखला में आकार ले रहा है।
भारत की गौरवशाली संस्कृति और सोने की चिड़िया का स्वर्णिम इतिहास सदा ही आत्म विभोर करता रहा है।
इन्ही गौरवमयी स्मृतियों के पल में मेरे मन में कितने भाव आते हैं जो कभी आह्लादित करते हैं तो कभी गहन पीड़ा और विषाद से भर देते हैं।
आक्रांताओं और गद्दारों की कुटिल चालों के कारण
स्वर्ण विहग ने अत्यंत घाव सहे हैं और ऐसा महान देश सदियों तक दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा है।
यह पढ़ते और लिखते समय मेरी कलम कितनी ही बार रोई है और असह्य वेदना का अनुभव हुआ है।
इतिहास के इन पृष्ठों का संघर्ष और अनगिन बलिदानी गाथाओं को शब्दों में बाँध पाना असंभव है किंतु सवैया कुंडलिया और आल्हा छंद के माध्यम से एक तुच्छ प्रयास किया है।
इस प्रयास में आ0 संजय कौशिक विज्ञात जी और कलम की सुगंध पटल का निरंतर सहयोग मिलता रहा।
आ0 गुरुदेव और आ0 नीतू जी के पग-पग पर मार्गदर्शन और प्रोत्साहन से ही ये कार्य संभव हो सका है।
स्वदेशी, स्वतंत्रता, देश प्रेम एक भाव है, एक विचार है, कर्म और चिंतन है जिसके सामने सब कुछ नगण्य हो जाता है। इसी भाव को साथ लेकर अनगिन वीर सेनानियों ने आजादी के संघर्ष में अपने प्राण आहुत किये हैं।
कुछ याद रहे और उनकी अमिट छाप हृदय पटल पर अंकित है तो कुछ इतिहास के पन्नों में गुमनाम रहे।
उन सभी वीर योद्धाओं को अपने भाव सुमन अर्पित करती हूँ । सभी को लिख पाना तो संभव नहीं था
किंतु प्रयत्न अवश्य किया है।
इन सैनिकों के अमर गाथा के कारण ही भारत देश आज अमरता की ओर चल पड़ा है।
आ0 विज्ञात जी द्वारा नए छंदों पर शोध किये गए छंद में से एक आख्या छंद पर सेनानियों का परिचय लिखा है।
आज इन्हीं के शौर्य के कारण ही देश आजाद हवा में साँसे ले रहा है। इसी विरासत को हमें अब सँभालना है।
अपने हित को जब साधेंगे,सदा देश के ही उपरांत।
भारत उन्नत भाल रहेगा,और अडिग होगा दृष्टांत।।
विज्ञात प्रकाशन का हार्दिक आभार जिससे यह खंड काव्य मूर्त रूप ले सका।
पति,परिवार और मित्रों के सहयोग और प्रोत्साहन से मुझे सदा संबल मिला है,जिसका परिणाम आपके समक्ष है और ये खंड काव्य आपके आशीष और स्नेहिल प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में है....
अब आत्म बोध का हो विचार।
मिल लक्ष्य साध लो सब अपार।।
हों स्वर्ण विहग के नव्य पंख,
सुन मातु भारती की पुकार।।
अनिता सुधीर 'आख्या'
आ0 नवल जी आपने अपना बहुमूल्य समय देकर उत्कृष्ट भावपूर्ण अवलोकन कर मुझे कृतार्थ कर दिया
आप का हृदयतल से आभार
स्वर्ण विहग के घाव : कुछ पन्ने इतिहास के (खंड काव्य )
कवयित्री : श्रीमती अनिता सुधीर आख्या जी
प्रकाशक : विज्ञात प्रकाशन
मूल्य : 250 रुपए।
एक अवलोकन
इतिहास प्रायः एक नीरस विषय के रूप में देखा जाता है। लेकिन जब उसी इतिहास को काव्य की सरस कूँची से रस रंजित कर प्रवाहमय कर दिया जाए तो? आप बिलकुल ठीक समझ रहे हैं। मैं ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित एक खंड काव्य की बात कर रहा हूँ, जिसकी रचयिता हैं आदरणीया अनिता सुधीर जी। अनिता जी लखनऊ की रहनेवाली हैं और रसायन विज्ञान में अनुसंधान किया है इसीलिए जब बीकर और त्रिपाद पर रसायन विज्ञान के सूत्र के स्थान पर ऐतिहासिक तथ्यों को चढ़ाईं तो प्रतिफल में यह खंड काव्य बन गया।
एक बार बातों ही बातों में उन्होंने कहा था कि आजादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में वे एक पुस्तक प्रकाशित करेंगी। मैंने कहा, अच्छी बात है। किंतु तब मुझे कहाँ पता था कि वे इतिहास पर काव्य रच डालेंगी। अक्का, आपके इस भगीरथ प्रयत्न की जितनी भी सराहना की जाए, वह कम ही होगी। आपकी इस अद्वितीय, स्तुत्य कर्तृत्वशक्ति को सादर नमन।
अस्तु, चार सर्गों में विभाजित इस पुस्तक का प्रारंभ ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन से हुआ है। तथा चरणबद्ध तरीके से विविध घटनाओं को समेटते हुए गोवा मुक्ति के ऑपरेशन विजय 1961 तक की घटनाओं को तीन सर्गों में समाहित कर लिया गया है। चौथा सर्ग अखंड भारत के स्वप्नदृष्टा को समर्पित है, जिसमें लगभग 39 महापुरुषों के बारे में वर्णन/मंडन किया गया है। पुस्तक का अंतिम पृष्ठ -वंदे मातरम, कवयित्री के राष्ट्र प्रेम का प्रकटीकरण है।
आदरणीया अनिता जी एक उत्कृष्ट छंद साधिका हैं। अनगिनत छंदों पर वे एकाधिकार रखते हुए समसि संधान करती हैं। अतः इस पुस्तक की रचनाएँ भी छांदस ही होगी, यह तो स्पष्ट है। किंतु कौन से छंद में? मूलतः इस खंड काव्य का आधार वीर /आल्हा छंद है, जो कथानक को प्रस्तुत करने के निमित्त पूर्णतः समीचीन है। साथ ही प्रत्येक घटना की भूमिका को प्रदर्शित करने के लिए सवैया छंदों का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः वीर छंद में सवैया की छौँक खंड काव्य की लावण्यता और रोचकता में चार चाँद लगा दे रहा है। साथ ही एकरागात्मकता के विखंडन हेतु बीच-बीच में भूमिका में सवैया के स्थान पर दोहा मुक्तक तथा कुंडलिया का भी प्रभावी प्रयोग किया गया है। यह कवयित्री के सृजन चातुर्य का परिचायक है।
पुस्तक प्रारंभ में ही भारत वर्णन में प्रस्तुत एक मत्तगयंद सवैया देखिए -
भारत गौरव गान लिखें जब, पुण्य धरा लगती सम चंदन।
जन्म लिए प्रभु राम यहाँ पर, धर्म सनातन का अभिनंदन।
मानवता पहचान बना कर, सत्य करें इसका नित वंदन।
पावन संस्कृति पूज रही युग, जीवन में भरती स्पंदन।
चतुर्वेद का भाव बोध लिए हुए हैं - ये चार पंक्तियाँ।
ईस्ट इंडिया के आगमन (31 दिसंबर 1600) को वर्णित करता एक दोहा मुक्तक देखिए -
ईस्ट इंडिया कंपनी, पहुँची भारत द्वार।
आए जेम्स नरेश फिर, करने को व्यापार।
डच से समझौता किए, पुर्तगाल अवरोध,
जहाँगीर के काल में, पाए फिर अधिकार।
शिल्प एवं भाव का संयोजन करते समय सृजनात्मक स्वतंत्रता तो ली गई है किंतु कहीं भी तथ्यों की प्रामाणिकता के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की गई है। खंड काव्य का संकल्प लेने के साथ ही आख्या जी ने उपलब्ध प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रंथों का सूक्ष्म अवलोकन किया है। बारीक से बारीक तथ्यों को जाँचा है परखा है, तब जाकर उन्हें शब्दबद्ध किया है। और यदि मैं यह कहूँ कि उन्होंने न केवल तथ्यों को परखा है बल्कि घटनाओं को आत्मसात कर उन्हें अनुभूत किया है, अमानवीय यातनाओं के अनुभास से रोई हैं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनकी इसी मानवीयता की झलक जालियाँवाला बाग की घटना को वर्णित करते हुए इन पंक्तियों में प्रकट हो गई है -
कूप गवाह बना लाशों का, और मची थी चीख पुकार।
क्षोभ हुआ फिर लिखते -लिखते, पढ़कर वह कपटी व्यवहार।
इसी प्रकार काकोरी कांड के वीरों की फाँसी की सजा को वर्णित करते हुए लिखती हैं -
एक दिवस ही सजा मिली थी, और जेल में आया काल।
हँसते -हँसते फाँसी चढ़ते, भारत माँ के चारों लाल।
तथ्यों को परोसते हुए विदुषी का अभिमत भी प्रकट हो उठता है। एक कुंडलिया देखिए -
पढ़ते जो इतिहास को, पीड़ा अपरंपार।
कुटिल विभाजन नीति से, बहे अश्रु की धार।
बहे अश्रु की धार, बीज जो जब थे रोपे।
फसल आज तैयार, पीठ खंजर में घोपे।
सत्य छिपा है मौन, दोष गुजर पर मढ़ते।
झेले दंश समाज, झूठ को नित ही पढ़ते।
यह इतिहास की लेखिका नहीं अपितु राष्ट्र की प्रहरिन्, समाज की प्रबुद्ध चिंतक ही लिख सकती है।
कुल मिलाकर कही जाए तो ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन से लेकर प्लासी का युद्ध, संन्यासी विद्रोह, बक्सर युद्ध, स्वतंत्रता आंदोलन, मैग्नाकार्टा, बंग-भंग, स्वदेशी आंदोलन से होते हुए उग्र राष्ट्र वाद,सूरत अधिवेशन आदि प्रत्येक महत्वपूर्ण घटनाओं को क्रमिक रूप से इस पुस्तक में समाहित किया गया है। काव्य के गुण धर्म के अनुसार बड़े ही रोचक तरीके से बिना किसी तथ्यात्मक विचलन के घटनाओं का वर्णन पुस्तक की उपयोगिता में चार चाँद लगा रहा है। साथ ही इसमें महापुरुषों की जीवनी को भी समाहित किया गया है। इस हिसाब से यह पुस्तक विद्यालय के बच्चों के लिए एक रेडी रैकोनर का काम करेगी।
आजादी के अमृत महोत्सव के वर्ष में एक पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक के सफल प्रकाशन पर मैं आदरणीया अनिता सुधीर आख्या जी को अनंत शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ। 🌹🌹
आपकी लेखनी यों ही निर्बाध प्रवाह मान रहे।
जय हिंद
वंदे मातरम।
--©नवल किशोर सिंह
12.07.2022
पावन मंच को नमन
न्याय
न्याय के मंदिर में
आँखों पर पट्टी बांधे
मैं न्याय की देवी ..
प्रतीक्षा रत ...
कब दे पाऊँगी न्याय सबको...
हाथ में तराजू और तलवार लिये
तारीखों पर तारीख की
आवाजें सुनती रहती हूँ ..
वो चेहरे देख नहीं पाती ,पर
उनकी वेदना समझ पाती हूँ
जो आये होंगे
न्याय की आस में
शायद कुछ गहने गिरवी रख
वकील की फीस चुकाई होगी
या फिर थोड़ी सी जमीन बेच
बेटी के इज्जत की सुनवाई में
बचा सम्मान फिर गवाया होगा
और मिलता क्या ..
एक और तारीख ,
मैं न्याय की देवी प्रतीक्षा रत ....
कब मिलेगा इनको न्याय...
सुनती हूँ
सच को दफन करने की चीखें
खनकते सिक्कों की आवाजें
वो अट्टहास झूठी जीत का
फाइलों में कैद कागज के
फड़फड़ाने की,
पथराई आँखो के मौन
हो चुके शब्दों के कसमसाने की
शब्द भी स्तब्ध रह जाते
सुनाई पड़ती ठक ठक !
कलम के आवरण से
निकलने की बैचेनी
सुन लेती हूँ
कब लिखे वो न्याय
मैं न्याय की देवी प्रतीक्षारत....
महसूस करती हूँ
शायद यहाँ लोग
काला पहनते होंगे
जो अवशोषित करता होगा
झूठ फरेब बेईमानी
तभी मंदिर बनता जा रहा
अपराधियों का अड्डा
कब मिलेगा न्याय और
कैसे मिलेगा न्याय
जब सबूतों को
मार दी जाती गोली
मंदिर परिसर में
मैं मौन पट्टी बांधे इंतजार में
सबको कब मिलेगा न्याय..
अनिता सुधीर
श्यामा प्रसाद मुखर्जी
(6 जुलाई 1901 - 23 जून 1953)
जो मुखर्जी श्यामा
लिख गए भारत इतिहास।
नित्य पदचिन्हों पर
हम करें चलकर अभ्यास।।
वीर विलक्षण प्रतिभा लेकर,राजनीति में करें प्रवेश।
'देश अखंड रहे' यह मेरा,जनमानस को दे संदेश।।
तुष्टिकरण की नीति-नियम का,किया उन्होंने सदा विरोध।
धर्म बँटा आजादी में जो,परिणामों का होता बोध।।
एक देश दो ध्वज क्यों होंगे,इसका उनको नित था भान।काशमीर भारत में होगा,नहीं रहेगा धर्म विधान।।
हिंदू पर अत्याचार हुए, उनके मन जन्मा आक्रोश।
दल जनसंघ गठित कर कहते,किसी धर्म से कब है रोष।।
शिक्षाविद चिंतक श्यामा को,याद रखेगा भारतवर्ष।
हिंद उपासक अलख जगाकर,प्राणों का करते उत्कर्ष।।
अनिता सुधीर
भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता
पाँव नन्हें याद में अब
स्कंध का ढूँढ़ें सहारा
उँगलियाँ फिर काँध चढ़ कर
चाहतीं नभ का किनारा
प्राण फूकें पाँव में वह
सीढ़ियाँ नभ तक बनाता।।
भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता
जोड़ता संतान का सुख
भूल कर अपनी व्यथा को
जब गणित में वो उलझता
तब कहें जूते कथा को
फिर असीमित बाँटने को
सब खजाना वो लुटाता।।
भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता।।
छत्रछाया तात की हो
धूप से जीवन बचाते
दुख बरसते जब कभी भी
बाँध छप्पर छत बनाते
और अम्बर हँस पड़ा फिर
प्यास धरती की बुझाता।।
भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता।।
अनिता सुधीर आख्या
मरुथल में
एक फूल खिला
कैक्टस का
तपते रेगिस्तान में
दूर-दूर तक रेत ही रेत
वहाँ खिल कर देता ये संदेश
विपरीत स्थितियों में
कैसे रह सकते शेष
फूल खिला सबने देखा
पौधे को किसने सोचा?
स्वयं को ढाल लिया
विपरीत के अनुरुप
अस्तित्व को बदला कांटो में
संग्रहित कर सके जीवन जल
और खिल सके पुष्प ।
ऐसे ही नही खिलता
मानव बगिया मे कोई पुष्प,
माली को ढलना पड़ता है
परिस्थिति के अनुरूप ।।
अनिता सुधीर
भवन की फसल अब धरा पर खड़ी है।
मही ओढ़ मुख को व्यथा से पड़ी है।।
सदा वृक्ष शृंगार भू का बढाए
जगत संपदा भी इन्हीं से जड़ी है।।
इसी भाँति कटते रहे जो विटप सब
मनुज भूल की फिर सजा भी बड़ी है।।
प्रभावित हुआ जैव मंडल हमारा
बढ़ी जीव की अब अपेक्षा अड़ी है।।
प्रदूषण बढ़ा व्याधि बढ़ती रही नव
विदोहन कपट दृष्टि जब से गड़ी है।।
जटिल ये समस्या समाधान माँगे
हृदय वेदना द्वंद्व से नित लड़ी है।।
चलो पौध कुछ रोप आएँ धरा पर
मृदा बाँधने की यही शुभ घड़ी है।।
अनिता सुधीर आख्या
चित्र गूगल से साभार
नियम-युद्ध उर ने लड़ा है।
उलझता हुआ-सा खड़ा है।।
समय चक्र की रेत में धँस
वहीं रक्तरंजित पड़ा है।।
रही भिन्नता कर्म में जब
भरा पाप का फिर घड़ा है।।
विलग भाव की नीतियों ने
तपन ले मनुज को जड़ा है।।
जमी धूलि कबसे पुरातन
विचारें कहाँ पल अड़ा है।।
सदी-नींव को जो सँभाले
बचा कौन-सा अब धड़ा है।।
लिए भाव समरस खड़ा जो
वही आज युग में बड़ा है।।
समर में विजय कर सुनिश्चित
जगत मिथ्य भू में गड़ा है।।
अनिता सुधीर आख्या
गीतिका
मानव हृदय विचार, समझना दूभर है।
बात- बात पर रार, समझना दूभर है।।
प्रेम अनोखी नीति, त्याग की निष्ठा की
जीत कहें या हार, समझना दूभर है।।
रखे दोहरी नीति, मुखौटा पहने सब
अजब जगत व्यापार, समझना दूभर है।।
देश-प्रेम अनमोल, भाव यह सर्वोपरि
बनते क्यों गद्दार, समझना दूभर है।।
बढ़ा मनुज का लोभ, कर्म भी दूषित अब
झेले क्यों संसार , समझना दूभर है।।
संस्कृति पर आघात, सहे जीवन जीता
कहाँ धनुष टंकार, समझना दूभर है।।
हृदय प्रेम की डोर, उलझती ही जाती
ढीला क्यों आधार ,समझना दूभर है।।
सत्य हुआ जब मौन, न्याय भी चुप बैठा
छपे झूठ अखबार, समझना दूभर है।।
कम होते संवाद, मूल्य कम रिश्तों का
किसे कहें परिवार, समझना दूभर है।।
अनिता सुधीर
*मंगलमान अभियान*
नव शक्ति ले नव लक्ष्य ले, अभियान मंगलमान का।
प्रहरी बना यह राष्ट्र का, शुभ कीर्ति का यशगान का।।
मतदान का जब पर्व था, नित जागरण हित राष्ट्र में
वह युद्ध था रणवीर का, था योग्यता पहचान का।।
उर में सनातन धर्म है, करते विसर्जन मूर्ति जो
यह दृष्टि है अति दूर की, यह भाव है अवदान का।।
हर भूख को नित रोटियाँ, जल का प्रबंधन कर रहे
शुभ मंगला बरसात से, दिन कष्ट के अवसान का।।
परिकल्पना नव कार्य की, श्रम साध के फिर कर्म से
गुरु विश्व का बनना हमें, ध्वज केसरी के आन का।।
अनिता सुधीर
*अंध विश्वास*
सो रहा विश्वास अंधा
बुद्धि पर भी धुंध छाई।
मिर्च नींबू थक रहे हैं
द्वार पर कबसे टँगे हैं
डूबता व्यापार डाँटे
अब यहाँ ये क्यों लगे हैं
बाजुओं का बोलता दम
फिर निडरता जीत पाई।
मार्ग बिल्ली का कटा जो
वह अशुभ ले बैठती है
कोसती रहती मनुज को
बात क्या ये पैठती है
छींक को पानी पिलाकर
शुभ घड़ी सबने बनाई।।
शल्य होता अब जरूरी
धर्म अंधा आँख पाए
टोटके का मंत्र मारो
रात भी फिर मुस्कुराए
नींद से अब जागती सी
ये सुबह नव रीत लाई।।
अनिता सुधीर
धन्य रही भारत की धरती, गौरवशाली है पहचान।
व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व बना कर, जो गाती नित अनुपम गान।।
पथ में कब कठिनाई आती, जब करते हैं ढृढ़ संकल्प।
दूर भगाते बाधा को फिर, चाहे साधन हों अति अल्प।।
विश्वकोश जंगल की कहते, तुलसी गौड़ा नाम महान।
पर्यावरण सुरक्षा में जो, देता अपना जीवन दान।।
जन्म लिया था कर्नाटक में, वृक्षारोपण ही अभियान।
निर्धनता कब आड़े आयी, "वनदेवी" बन रखतीं ध्यान।।
नित्य दिहाड़ी मजदूरी कर, रचा अनोखा यह इतिहास।
वन्यजीव की देखभाल कर, जंगल में ढूंढें उल्लास।।
मातृ वृक्ष को पहचानें जब, करतीं बीजों को एकत्र।
फिर बीजों के निष्कर्षण से, पौध लगातीं वो सर्वत्र।।
सिद्ध किया तुलसी गौड़ा ने,विधिवत शिक्षा कब अनिवार्य।
अठहत्तर की अभी उमर कम, दौड़ रहा नित उनका कार्य।
बिरले तुलसी गौड़ा जैसे, सरल सहज जिनका व्यवहार।
पुरस्कार हैं झोली में पर ,जीवन सादा उच्च विचार।।
पद्मश्री सम्मान मिला है,और मिले कितने ईनाम।
प्रकृति प्रेम में तन अर्पित कर, लिखतीं जीवन का आयाम।।
हाड़-माँस के जर्जर तन पर, पहन आदिवासी पोशाक।
नंगे पैर भवन में पहुँची, रखे इरादे अपने पाक।।
जंगल की पगडंडी से चल, राष्ट्र भवन की है कालीन।
मिली प्रेरणा जीवन से यह, सदा कर्म रहते आधीन।।
अनिता सुधीर आख्या
दोहावली
बूढ़ा बरगद देखता, घर का आँगन लुप्त।
खड़ी मध्य दीवार में, नेह पड़ा है सुप्त।।
लाख यत्न शासक करे,बना नियम सौ-लाख।
कुछ की भूख करोड़ की, कहाँ बचे फिर साख।।
चिर प्रतिद्वंद्वी देश का,सदा सहा आघात।
छुरा पीठ में भोंक कर, करता मीठी बात।।
जन्म-मरण के मध्य में, है श्वासों का खेल।
साधक बन कर खेलिए, रखे जगत से मेल।।
पुस्तक के बँद पृष्ठ में, प्रेम चिन्ह जो शेष।
निमिष मात्र विस्मृत नहीं, दृष्टि रही अनिमेष।।
होता तर्क़ वितर्क जब, करिए नहीं कुतर्क।
बना सत्य को झूठ क्यों, करते बेड़ा ग़र्क़।।
गरज-बरस के शोर में, लुप्त करें सब तथ्य।
स्वार्थ सिद्धि ही ध्येय जब, कौन विचारे कथ्य।।
अनिता सुधीर
ग़ज़ल
जिंदगी कब बीतती है प्यार की बौछार से
मुश्किलों का है सफ़र ये बोझ के अंबार से
वक़्त की इन आंधियों से हार कर क्या बैठना
चीर दे तूफ़ान को तू हौसलों की धार से
डोर नाजुक टूटती है प्रेम औ विश्वास की
चोट खाई है बशर ने फिर इन्हीं गद्दार से
मज़हबी कमजोरियां क्यों इस क़दर अब बढ़ चलीं
धर्म क्या अब यों बचेगा आपसी तक़रार से
क्यों कलम का रंग भी अब पूछते हैं सब यहाँ
अब समर लड़ना बचा है लेखनी तलवार से
वो अलग ही शख्सियत जो जीत की जिद पर अड़ी
कामयाबी की कहानी कब रची है हार से
किस अमन की चाह में कतरा लहू का बह रहा
जीत लो संसार को अब प्रेम के व्यवहार से
अनिता सुधीर
रामधारी सिंह दिनकर की पुण्य तिथि पर
हनुमान प्रकटोसव की शुभकामनाएं
चैत्र माह की पूर्णिमा,प्रकट हुए हनुमान ।
राम नाम उर में धरे ,करें राम का ध्यान।।
मारुति सुत हनुमान हैं,अनघ रुद्र अवतार।
रामदूत बजरंग जी ,करते बेड़ा पार ।।
जपे नाम हनुमान का , रोग दोष का नाश।
भवसागर से तार दें,अंतस भरें प्रकाश ।।
मूरत इनकी देख कर, दूर भागता काल।
दया करो मुझ दीन पर ,हे अँजनी के लाल ।।
भक्तों के दुख दूर हों, खड़े आपके द्वार।
प्रभु अपना आशीष दें, खुशियाँ भरें अपार।।
अनिता
नवगीत
जीत के कुछ मंत्र बो दें
अब लगी है धूप तपने
सौ परत में स्वप्न दुबका
सो रहा तकिया लगाकर
भोर सिरहाने खड़ी है
पैर को चादर उढ़ाकर
पथ विजय के नित पुकारें
धार हिय उत्साह अपने।।
कंठ सूखे होंठ पपड़े
ले नियति जब भागती है
पर्ण लेती सिसकियाँ जो
रात्रि भी फिर जागती है
अब पुरानी रीति बैठी
जीत के नव श्लोक जपने।।
रात ने माँगी मनौती
द्वार पर जो भोर उतरी
स्वेद श्रम से अब भिगोकर
कर्म की फिर बाँध सुतरी
रथ समय का चल पड़ेगा
ले कुँआरे साथ सपने।।
अनिता सुधीर
हाथ लेकर ख़ाली इस सफ़र पे आए।
साथ फिर क़फ़न के क्या ले के कोई जाए।।
अपनी ही चाहतों को दिल में दफन किया था
तूफ़ान जो उठा फिर कहर वो खूब ढाए।।
जिंदगी भी आज़िज़ कब तलक शिकवा करे
हाथ की लकीरों को कब कौन है मिटाए।।
तक़दीर खेल खेले अब पैर थक रहे हैं
वक़्त थोड़ा सा बचा चल कर शज़र लगाएं।
दिल में पड़ी दरारें जब धर्म की सियासत
आग बस्तियों की फिर कौन आ बुझाए।।
अनिता सुधीर
माता महागौरी
#माँ चंद्र घण्टा के चरणों में पुष्प#
परीक्षा
रूप घनाक्षरी
कितने ही प्रकार से जीवन परीक्षा लेता
जीत सदा होती कब,कभी मिलती है हार।
दुखी कभी होना नहीं, छोड़ दें अवसाद को
परीक्षा को पर्व मान, करें सदैव सत्कार।।
कर्म पथ हो अडिग, हर पल निडर हो
जो भी परिणाम आये, उसको ले अँकवार।
श्रेष्ठ अपना दीजिये धीरज वरण कर,
सबके प्रश्न भिन्न हैं ,यही जीवन का सार।।
अनिता सुधीर
शूल को पथ से हटाने का मजा कुछ और है।
वीथिका को नित सजाने का मजा कुछ और है।।
व्यंजना या लक्षणा में भाव हृद के व्यक्त हों
छंद को फिर गुनगुनाने का मजा कुछ और है।।
क्लांत बैठा हो पथिक जब जिंदगी से हार कर
पुष्प उस पथ में बिछाने का मजा कुछ और है।।
पंख सपनों को लगाकर दूर बाधा को करें
मुश्किलों के पार जाने का मजा कुछ और है।।
चाल चलकर काल निष्ठुर ओढ़ चादर सो रहा
लालिमा में चहचहाने का मजा कुछ और है।।
पीर की सामर्थ्य क्यों अवसाद को नित जोड़ती
वेदना में मुस्कुराने का मजा कुछ और है।।
कौन हूँ मैं क्या प्रयोजन द्वंद्व अंतस ने लड़ा
लक्ष्य को फिर से जगाने का मजा कुछ और है।।
अनिता सुधीर
कुंडलिया
1)
सपने जग कर देखिए, बीते काली रात।
खुले नैन से ही सधे, नूतन नवल प्रभात।।
नूतन नवल प्रभात, लक्ष्य दुर्गम पथ जानें ।
करके बाधा पार, मिले मंजिल तय मानें ।
सपनों का संसार, सजाएँ नित सब अपने।
कठिन लक्ष्य को भेद, और फिर देखें सपने।।
2)
अपने जीवन को गढ़ें, शिल्पकार बन आप।
छेनी की जब धार हो, अमिट रहेगी छाप।।
अमिट रहेगी छाप, सदा रखिये मर्यादा ।
सच्चाई का मार्ग, नहीं हो झूठ लबादा।।
सतत हथौड़ा सत्य का,पूर्ण हो सारे सपने ।
नैतिकता आधार,गढ़ें सब सपने अपने।।
अनिता सुधीर आख्या
अब आत्म बोध का हो विचार।
सुन मातु भारती की पुकार।।
बलिदान कृत्य से अमर आज
हम चुका सकें उनका उधार।।
पीर विरह की
पीर जलाती रही विरह की
बनती रीत।
मिले प्रेम में घाव सदा क्यों
बोलो मीत।।
विरह अग्नि में मीरा करती
विष का पान
तप्त धरा पर घूम करें वो
कान्हा गान
कुंज गली में राधा ढूँढे
मुरली तान
कण कण से संगीत पियें वो
रस को छान
व्यथित हृदय से कृष्ण खोजते
फिर वो प्रीत
पीर जलाती ..
तड़प तड़प कर रहते होंगे
राँझा हीर
अलख निरंजन जाप करे वो ,
टिल्ला वीर
बेग!माहिया बन के तड़पे ,
रक्खे धीर,
विरह अग्नि सोहनी की बुझती
नदिया तीर।
ब्याह चिनाब में फिर रचाये
मौनी मीत
पीर जलाये..
जन्मों के वादे कर हमसे
पकड़ा हाथ
अब विरह वेदना को सहते
छोड़ा साथ
बिना गुलाल अब सूखा फाग
सूना माथ
लगे भूत का डेरा घर अब
झेलें क्वाथ ।
पत्तों की खड़खड़ भी करती
अब भयभीत
पीर जलाए..
अनिता सुधीर
होलिका दहन
आज का प्रह्लाद भूला
वो दहन की रीत अनुपम।।
पूर्णिमा की फागुनी को
है प्रतीक्षा बालियों की
जब फसल रूठी खड़ी है
आस कैसे थालियों की
होलिका बैठी उदासी
ढूँढती वो गीत अनुपम।।
खिड़कियाँ भी झाँकती है
काठ चौराहे पड़ा जो
उबटनों की मैल उजली
रस्म में रहता गड़ा जो
आज कहता भस्म खुद से
थी पुरानी भीत अनुपम।।
बांबियाँ दीमक कुतरती
टेसुओं की कालिमा से
भावना के वृक्ष सूखे
अग्नि की उस लालिमा से
सो गया उल्लास थक कर
याद करके प्रीत अनुपम।।
अनिता सुधीर आख्या
मुक्तक
1)
दर्पण तुम लोगों को आइना दिखाते हो।
बड़ा अभिमान तुमको कि तुम सच बताते हो।
बिना उजाले के क्या अस्तित्व रहा तेरा ,
दायें को बायें कर तुम क्यों इतराते हो ।।
2)
ये दर्पण पर सीलापन था।
या छाया का पीलापन था ।।
दर्पण को पोछा बार -बार ,
क्या आँखो का गीलापन था ।
3)
हर शख्स ने चेहरे पर चेहरा लगा रखा है ।
अधरों पर हंसी, सीने में दर्द सजा रखा है ।
सुंदर मुखौटों का झूठ बताता है आईना ,
और मायावी दुनिया का सच छिपा रखा है।
©anita_sudhir
स्त्री बाजार नहीं है।
वो व्यापार नहीं है।।
दीपशिखा बनकर सदा जली ,
मेरे पथ पर रहा अंधेरा,
लपट बना कर चिंगारी की ,
लूट रहा सुख चैन लुटेरा ।
कितने धागे टूटा करते
सूखे अधरों को सिलने में
पहर आठ अब तुरपन करते,
क्षण लगते कुआं भरने में
रिसते घावों की पपड़ी से
पल पल बखिया वही उधेरा
लपट बना कर चिंगारी की ,
लूट रहा सुख चैन लुटेरा ।
पुष्प बिछाये और राह पर
शूल चुभा वो किया बखेरा ।
दुग्ध पिला कर पाला जिसको
वो बाहों का बना सपेरा ।
पीतल उसकी औकात नहीं
गढ़ना चाहे स्वर्ण ठठेरा
लपट बना कर चिंगारी की ,
लूट रहा सुख चैन लुटेरा ।
बन कर रही मोम का पुतला
धीरे धीरे सब पिघल गया
अग्निशिखा अब बनना चाहूँ
कोई मुझको क्यों कुचल गया
अब अंतस की लौ सुलगा कर,
लाना होगा नया सवेरा ।
लपट बना कर चिंगारी की
लूट रहा था चैन लुटेरा ।
अनिता सुधीर
*प्रीत हिंडोला*
उर जलधि में कर हिलोरें
प्रेम फलता-फूलता सा
रश्मि रथ पर पग सँभारे
भोर नटखट-सी उतरती
कुनमुनी सी गुनगुनाहट
साज बन कर अब चहकती
प्रीत हिंडोले लहर में
हिय कुसुम कुछ झूलता सा।।
तोड़ नीरवता विपिन भी
ले मलय सौरभ विचरता
लालिमा से अर्घ्य ले कर
फिर हृदय उपवन निखरता
हो तरंगित नाचता मन
कालिमा को भूलता सा।।
सप्त रंगों को सजोये
श्वेत अम्बर मुग्ध है अब
आगमन नव बौर का हो
नींद व्याकुल स्निग्ध है अब
उर प्रतीक्षा में धड़कता
जो रहा था सूखता सा।।
अनिता सुधीर आख्या
*बनी प्रेयसी सी चहकी*
खुली गाँठ मन पल्लू की जब
पृष्ठों पर कविता महकी
बनी प्रेयसी शिल्प छन्द की
मसि कागद पर वह सोई
भावों की अभिव्यक्ति में फिर
कभी पीर सह कर रोई
देख बिलखती खंडित चूल्हा
आग काव्य की फिर लहकी।।
लिखे वीर रस सीमा पर जब
ये हथियार उठाती है
युग परिवर्तन की ताकत ले
बीज सृजन बो जाती है
आहद अनहद का नाद लिये
कविता शब्दों में चहकी।।
शंख नाद कर कर्म क्षेत्र में
स्वेद बहाती खेतों में
कभी विरह में लोट लगाती
नदी किनारे रेतों में
रही आम के बौरों पर वह
भौरों जैसी कुछ बहकी।।
झिलमिल ममता के आँचल में
छाँव ढूँढती शीतलता
पर्वत शिखरों पर जा बैठी
भोर सुहानी सी कविता
लिए अमरता की आशा में
युग के आँगन में कुहकी।।
अनिता सुधीर आख्या
आया दौर चुनाव का ,नेताओं की रार ।
लगा दाँव पर अस्मिता ,करते हैं व्यापार।
आप की नजरें इनायत हो गयी
आप से मुझको मुहब्बत हो गयी।
इश्क़ का मुझको नशा ऐसा चढ़ा
अब जमाने से अदावत हो गयी ।
तुम मिले सारा जहाँ हमको मिला
यूँ लगे पूरी इबादत हो गयी।।
ये नजर करने लगी शैतानियां
होश खो बैठे कयामत हो गयी।
जिंदगी सँग आप के गुजरा करे
सात जन्मों की हकीकत हो गयी।
अनिता सुधीर
टूटी कमर दीवारों की
तिल तिल करके नित्य मरे
सोने जाती आधी रात
लिए दुखों का सँग तकिया
नींद सिरहाने ऊँघी जो
स्वप्न बने नित ही छलिया
आँसुओं की सभा लगी फिर
अपनों को कब गले भरें।।
पग काँपते घर आँगन के
चार कदम जो चलना है
संयमी तुलसी पीली पड़ती
द्वार आस का पलना है
अमृत रस साथी को देना
स्वयं मौत से कौन डरे।।
दोनों खाट ओसारे की
अस्थियों का पुल बनाएं
स्तम्भ जर्जर गिरा नदी में
चप्पू अब किसे थमाएं
ठहर गयी दोनों ही सुई
हलचल केवल एक करे।।
प्रेम रूप की श्वेत हंसिनी
लगे भोर की अरुणाई
चंचल-चपला सी मृगनयनी
चाल कुलांचे भूल चली
हौले-हौले कदम साध के
शांत चित्त की खिली कली
झुके नयन में लाज भरे जब
प्रीति पंखुड़ी गहराई।।
श्याम केश के अवगुंठन से
चाँद रूपिणी जब झाँके
अधरों का उन्माद धैर्य धर
पुष्प सितारे वह टाँके
स्निग्ध मुग्धता शीत चाँदनी
शुद्ध नीर-सी तरुणाई ।।
प्रेम मूर्ति की सुंदरता में
नहीं जलधि का शोर रहे
राग लावणी अंग सजा के
शीतल से उद्गार बहे
रमणी को परिभाषित करने
मर्यादा वो ठहराई।।
अनिता सुधीर