Friday, February 12, 2021

गीतिका


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भूल मानव की सदा से इस धरा ने जब सही है।
आँसुओं की बाढ़ आती वेदना फिर अनकही है।।

कोख उजड़ी माँग उजड़ी प्रीत के सब रंग उजड़े
कब मनुजता सीख लेगी पीर सदियों की यही है।।

नित बसंती बौर पर पतझड़ ठहरता सा गया क्यों
दर्द का फिर कथ्य लिखकर लेखनी विचलित रही है।।

लोभ मद के फेर में पड़ सुख भटकता जा रहा अब 
प्राप्ति की इस लालसा में सत्य की मंजिल ढ़ही है।।

मृत्यु की आहट सुनाकर जब प्रलय भी काँप जाए
फिर विधाता सोचता ये काल की कैसी बही है।।

बही  बहीखाता

अनिता सुधीर आख्या

16 comments:

  1. Replies
    1. जी आ0 हार्दिक आभार

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    2. जी आ0 हार्दिक आभार

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  2. जी आ0 रचना को स्थान देने के लिये हार्दिक आभार

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  3. जी आ0 रचना को स्थान देने के लिये हार्दिक आभार

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  4. कोख उजड़ी माँग उजड़ी प्रीत के सब रंग उजड़े
    कब मनुजता सीख लेगी पीर सदियों की यही है।।


    बहुत ही सुंदर रचना ,सादर नमन आपको

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