*खेत को क्यों मिर्च लागे*
हो अचंभित देखता जग
खेत को क्यों मिर्च लागे
रोटियां सब सेंकते जब
वो तवा हरदम बने हैं
मोहरें शतरंज चलतीं
दाँव प्यादे पर ठने हैं
कुर्सियां मिल कर लड़ी हैं
कर कृषक को आज आगे।।
खेत को क्यों
मंडियों की भीड़ कहती
दिग्भ्रमित हो क्यों खड़े हो
अन्न के दाता तुम्हीं हो
भूख से तुम ही लड़े हो
टूटते आए सदा ही
देख कच्चे मौन धागे।।
खेत को क्यों
खुरदुरी सी एड़ियाँ अब
घाव कितने सह रही हैं
पृष्ठ चिपका जब उदर से
उग्र हो कैसे सही हैं
पाट में घुन पिस रहे हैं
वेदना भुगतें अभागे।।
खेत को क्यों
अनिता सुधीर आख्या