ग़ज़ल
जिंदगी कब बीतती है प्यार की बौछार से
मुश्किलों का है सफ़र ये बोझ के अंबार से
वक़्त की इन आंधियों से हार कर क्या बैठना
चीर दे तूफ़ान को तू हौसलों की धार से
डोर नाजुक टूटती है प्रेम औ विश्वास की
चोट खाई है बशर ने फिर इन्हीं गद्दार से
मज़हबी कमजोरियां क्यों इस क़दर अब बढ़ चलीं
धर्म क्या अब यों बचेगा आपसी तक़रार से
क्यों कलम का रंग भी अब पूछते हैं सब यहाँ
अब समर लड़ना बचा है लेखनी तलवार से
वो अलग ही शख्सियत जो जीत की जिद पर अड़ी
कामयाबी की कहानी कब रची है हार से
किस अमन की चाह में कतरा लहू का बह रहा
जीत लो संसार को अब प्रेम के व्यवहार से
अनिता सुधीर