सहकर सबके पाप को,पृथ्वी आज उदास।
देती वह चेतावनी,पारा चढ़े पचास।।
अपने हित को साधते,वक्ष धरा का चीर।
पले बढ़े जिस गोद में,उसको देते पीर।।
दूर दूर तक गाँव में,होता गया विकास।
कटे खेत खलिहान जब,धरती हुई उदास।।
धरा कहे संतान से,मत भूलो कर्तव्य।
बने सजग प्रहरी चलो,लिए नव्य गंतव्य।।
हरित रंग की चूनरी,भू आंचल में प्यार।
कोटि-कोटि संतान के,जीवन का आधार।।
अनिता सुधीर आख्या