Tuesday, December 31, 2019




नव वर्ष का  प्रारंभ
गणेश वंदना के साथ

आधार चामर छन्द  23 मात्रा,15 वर्ण
गुरू लघु×7+गुरू
**
रिद्धि सिद्धि साथ ले,गणेश जी पधारिये,
ग्रंथ हाथ में धरे ,विधान को विचारिये।
देव हो विराजमान ,आसनी बिछी हुई,
थाल है सजा हुआ कि भोग तो लगाइये।

प्रार्थना कृपा निधान, कष्ट का निदान हो,
भक्ति भाव हो भरा कि ज्ञान ही प्रधान हो ।
मूल तत्व हो यही समाज में समानता,
हे दयानिधे! दया ,सुकर्म का बखान हो ।

ज्ञान दीजिये प्रभू अहं न शेष हो हिये
त्याग प्रेम रूप रत्न कर्म में भरा  रहे।
नाम आपका सदा विवेक से जपा करें,
आपका कृपालु हस्त शीश पे सदा रहे।


अनिता सुधीर

Monday, December 30, 2019


बीता साल
छन्द मुक्त
***
बीता साल
बीता ,पर
बीतने के लिए नहीं बीता!
चलता रहा ,
लड़खड़ाता  ,गिरता ,संभलता
कभी सही कभी गलत।
पर
ठहरा नहीं
ठिठका नहीं
डरा नहीं !
कभी शून्यता में अटका नहीं।
भटकाव लिए भटका नही
सहता रहा वार
सामने ,कभी पीछे से
रुका नहीं सहमा  नही
बीता साल बस चलता रहा ।
दुश्मन के घर तक गया ।
प्रचंड आंधी चली
तिनका तिनका सब बिखर  गये ।
लड़ता रहा अधिकार के लिए
धारा  से लड़ा
कुछ डरे कुछ डराये।
 बीता साल मंदिर गया
निर्णय लेता रहा।
बीता साल
चलता  रहा ,दौड़ता रहा !
इस  दौड़ने में कुछ धीरे धीरे
सुलगता रहा
और जाते जाते  जलता रहा ।
आने वाला साल
भी चलता रहे ,दौड़ता रहे ,
सड़ा  गला हटाना है
शिखर तक जाना है  ।


अनिता सुधीर








Saturday, December 28, 2019

गीतिका


रीतियाँ नश्वर जगत की यूँ निभाना चाहिए ,
चार दिन की ज़िंदगी का ढंग आना चाहिए ।

राख से पहले यहाँ क्यों हो रहा जीवन धुआँ ,
ध्यान चरणों में सदा प्रभु के लगाना चाहिए ।

देह माटी की बनी अभिमान इस पर क्यों करें ,
मोह  माया से परे जीवन बिताना चाहिए ।

ईश है कारक सदा से ,भाव कारक क्यों रखें ,
कर्म से झोली  भरें अब पुण्य पाना चाहिए ।

पाप करते जा रहे क्यों ,धर्म के धारक बनें ,
कीर्ति की शोभित पताका ही दिखाना चाहिए । 

Thursday, December 26, 2019

सूर्य ग्रहण
दोहा छन्द गीत

उत्कंठा मन में रही ,क्या है इसका राज ।
ग्रहण सूर्य पर क्यों लगे,रहस्य खुलते आज ।।

नील गगन में घूमते,कितने ग्रह चहुँ ओर ।
चक्कर सूरज के लगा,पकड़े रहते  डोर ।।
घूर्णन धरती भी करे, धुरी सूर्य को मान।
चाँद उपग्रह धरनि का,वो भी जाने ज्ञान।।
लिये चाँद को घूमती,करे धरा सब काज,
ग्रहण सूर्य पर क्यों लगे,रहस्य खुलते आज ।।

चाँद धरा सब घूमते ,अपनी अपनी राह।
धरा सूर्य के मध्य में,चाँद दिखाता चाह।।
अवसर जब ऐसा हुआ,होता लुप्त उजास।
घटना ये नभ की रहे ,सदा अमावस मास।।
सूर्य ग्रहण इसको कहें ,गिरी धरा पर गाज ।
ग्रहण सूर्य पर क्यों लगे,रहस्य खुलते आज ।।

बंद द्वार मंदिर हुये, करें स्नान अरु दान ।
आस्था की डुबकी में,भूले नहिं विज्ञान।।
फैली कितनी भ्रांतियां,जानें इसका मर्म।
खगोलीय गति पिंड की,विशेष नहिं है धर्म।
तर्क़ शक्ति से सोच के ,पालन रीति रिवाज ।।
ग्रहण सूर्य पर क्यों लगे,रहस्य खुलते आज ।।

©anita_sudhir

Wednesday, December 25, 2019



दोहावली

भावों का व्यतिरेक है ,नहीं शिल्प का  ज्ञान ।
छन्द सृजन संभव नहीं ,मैं मूरख अंजान।।

जीवन उपवन हो सजा,खिले पुष्प प्रत्येक।
घृणा द्वेष व्यतिरेक हो,प्रेम  बहे अतिरेक ।।

मातु पिता आशीष से,मन हर्षित अतिरेक।
प्रभु चरणों में ध्यान हो,पूर्ण कार्य प्रत्येक।।

बंधन जन्मों का रहे ,निभे प्रणय की रीति।
निष्ठा अरु विश्वास ही ,सफल करे ये नीति।।

प्रणयन कर ये सम्पदा ,हिय में भरा हुलास ।
विद्वजन के सामीप्य में ,मिले ज्ञान का ग्रास।।




Tuesday, December 24, 2019




नई सोच


शीत लहर का  प्रकोप चरम सीमा पर था । शासन के आदेश अनुसार सभी विद्यालय बंद हो गये थे ।बच्चों की छुट्टियाँ थी इतनी ठंड में सभी  काम निबटा  लेकर नीता  रज़ाई  में घुसी ही थी ,कि दरवाज़े  की घंटी बजी ।
इतनी ठंड में  कौन आया ,नीता बड़बड़ाते हुए उठी ।
(दरवाजे पर कालोनी के कुछ बच्चों और लड़कों को देखकर )
नीता - तुम लोग इतनी ठंड में ?
रोहन - आंटी एक रिक्वेस्ट है आपसे ,यदि कोई पुराने गर्म कपड़े ,कम्बल आदि आपके पास हो तो प्लीज़ साफ़ कर के उसे  पैक कर दीजिए ,हम लोग उसे दो तीन दिन में आकर ले जाएँगे ।
नीता - (आश्चर्य से  )तुम लोग इसका क्या करोगे ?
रोहन - (जो इन सबमें सबसे बड़ा  कक्षा  १२ का छात्र था )
आंटी  इतनी ठंड पड़ रही है,कुछ बच्चों को ठिठुरते देखा तो हम सबने ये सोचा कि इनकी  सहायता कैसे करें !
तो हम सभी ने ये तय  किया  कि सबके घर में पुराने  छोटे कपड़े होते ही हैं  वो  इकट्ठा कर इन ज़रूरतमंद लोगों को दे सकते हैं ।उनकी क्रिसमस और नए साल का  गिफ़्ट हो जाएगा  ,ठंडक से आराम और हमारी छुट्टियों का सदुपयोग भीं हो जाएगा ।
नीता - मंत्रमुग्ध सी रोहन की बात सुन कर , बेटा मैं तुम्हारे  विचारों से बहुत प्रभावित हुई हूँ ,क्या तुम लोगों ने अपने घर में बात कर ली है !
रोहन - आंटी पापा को बताया था , वो बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने हमारी पूरी सहायता करने को कहा है ।ये सब  बाँटने में वो हमारे साथ होंगे ।
नीता - (सोचते हुए )धन्य  हैं  रोहन के माता पिता जिन्होंने इतने अच्छे संस्कार दिए । जब आज की पीढ़ी नए साल की पार्टी  में नशे में चूर  हो  डान्स में डूब जाती है तो ये विचार समाज में एक नयी सुबह ले कर आयेगा ,निश्चिन्त हूँ  जब तक ये संवेदनशीलता हमारी सोच में रहेगी हमारी संस्कृति की रक्षा सदैव रहेगी । मुस्कुराते हुए वो गर्म  कपड़े निकालने चल दी थी ::
©anita_sudhir

Monday, December 23, 2019



कुंडलियां

*गजरा**
गजरा ले लो आप ये ,सुनते थे आवाज।
रुके वहाँ कुछ सोच के,छोड़े सारे काज ।।
छोड़े सारे काज,दिखी थी कोमल कन्या ।
मुख मलिन वसन हीन,कहाँ थी इसकी जन्या।।
मन में  उठती पीर....करें  ये जीवन उजरा।
लेकर आया मोल ,.....उन्हीं हाथों से गजरा।।
///

*कंगन **
असली कंगन पहन के ,महिला करती सैर ।
वहाँ लुटेरे मिल गये ....कंगन की नहि खैर ।।
कंगन की नहि खैर ,सभी देखते तमाशा ।
छीना झपटी मार,नहीं स्त्री छोड़ी आशा ।।
निकले मुख से बोल,लिये जाओ !वो नकली।
बनवा लूँगी चार ,बचाये कंगन असली ।।
////

Sunday, December 22, 2019

वृत्त परिधि पर अनगिनत बिंदु
सबकी दिशायें अलग अलग
जीवन परिधि पर
 ऐसे ही अनगिनत लोग
सूक्ष्म कण  मानिंद
 विचार  और राह
सब अलग अलग।
ना लेना एक ना देना दो
 फिर क्यों जंग छिड़ी हुई
मैं सही तुम गलत।
 कोई दो बिंदु  गर
प्रेम केंद मे रख, जुड़े तो
व्यास बन बड़े हो जाये
केंद्रित जो न हुए प्रेम से
कॉर्ड  बन छोटे हो  जायेगे(chord)
एक और एक मिल
क्यों बनते हो शून्य
जिंदगी है जोड़ ,गुना
एक और एक मिल
बन जाओ ग्यारह ।

Saturday, December 21, 2019

गीतिका
****

शरम से निगाहें गड़ी जा रहीं हैं
अभी भी,कली जो लुटी जा रही है।

जलाते रहे जो चमन दूसरों के ,
उन्हीं की खुशी अब जली जा रही है।

रखे हौसला,जब मुसीबत सही थी,
कहानी उसी की लिखी जा रही है।

फसल विष भरी जो उगाते रहे वो
वही भीड़ अब ये बढ़ी जा रही है।

जरा होश में आइये अब सभी तो
यहाँ शाम ये जो ढली जा रही है।

अनिता सुधीर

Thursday, December 19, 2019


कुंडलिया

1) डोली
डोली बेटी की सजी,खुशियां मिली अपार।
 सपने आंखों में लिये ,छोड़ चली घर द्वार।।
 छोड़ चली घर द्वार ,जग की ये रीति न्यारी।
दो कुल की है लाज ,सदा खुश रहना प्यारी ।।
देते  सब आशीष , सुख से भरी हो झोली ।
दृग के भीगे कोर ,उठे जब तेरी डोली।।

2)बिंदी

बिंदी माथे पर सजा ,कर सोलह श्रृंगार ।
पिया तुम्हारी राह ये ,अखियां रही निहार ।।
अखियां रही निहार,तनिक भी चैन न मिलता।
कैसे कटती रात ,विरह में तन ये जलता।।
बढ़ती मन की पीर ,छेड़ती है जब ननदी ।
तुम जीवन आधार ,तुम्हीं से मेरी बिंदी।।

स्वरचित
अनिता सुधीर






Wednesday, December 18, 2019

द्वार द्वार जा रहे    ,बधाई गीत गा रहे ,
वाद्य यंत्र साथ लिए ,दुआ देते जा रहे  ।
कोई कहे किन्नर इन्हें ,कोई कहे वृहन्नला
कोई छक्का कह इन्हें,हँसी क्यों उड़ा रहे ।
न नर न नारी रहे ,सदा ये बेचारे  रहे,
बिना गलती दोष के,अलग प्राणी रहे।
वेदना अथाह सहें ,अपनों से दूर रहें
दुआओं के बदले ये ,तिरस्कार सह रहे ।
शारीरिक दोष है इन्हें,मन से अपंग नही
सोच ले ये समाज ,कहीं वो इनमें तो नहीं।

**
शायर
हृदय की संवेदनाओं को
दिल की भावनाओं को
पल-पल जीते पल-पल मरते ,
कल्पना शक्ति का जामा पहना
शब्दों से कागज पर उकेरते
लहू की स्याही से लिखते..
श्रोताओं  और पाठकों के
दिल के तारों को झंकृत कर
उसी विरह अग्नि  में तड़पाते
नायिका के सौंदर्य रस में डुबाते
शहीदों की गाथा लिख क्रांति और चेतना लाते ,
वही शायर बन पाते ।
भावों की अभिव्यक्ति को बड़ी खूबसूरती से
बह्र ,काफिया और रदीफ़ से सजाते  ,
कभी नज्म कहते ,कभी गजल
उर्दू की मीठी वाणी से कानों में रस घोलते
जुबां से निकले शब्द शायरी में ढलते
वही शायर बन पाते ।
शायर सशरीर रहे ,न रहे
 शायरियां युगों  युगों तक रहतीं
लोगों की जुबां पर चढ़ी
वो ही शायर बन पाता।

Tuesday, December 17, 2019

न्याय

न्याय के मंदिर में

आंखों पर पट्टी बांधे

मैं न्याय की देवी .प्रतीक्षा रत  ...

कब मिलेगा न्याय सबको...

हाथ में तराजू और तलवार लिये

तारीखों पर  तारीख की

आवाजें सुनती रहती हूँ ..

वो चेहरे देख नहीं पाती ,पर

उनकी वेदना समझ पाती हूँ

जो आये होंगे

न्याय की आस में

शायद कुछ गहने गिरवी रख

वकील की फीस चुकाई होगी,

या  फिर थोड़ी सी जमीन बेच

 बेटी के इज्जत की सुनवाई में

बचा  सम्मान  फिर गवाया होगा

और मिलता क्या

एक और तारीख ,

मैं न्याय की देवी प्रतीक्षा रत ....

कब मिलेगा इनको  न्याय...

सुनती हूँ

सच को दफन करने की चीखें

खनकते सिक्कों की आवाजें

वो अट्टहास  झूठी जीत का

फाइलों में कैद  कागज के

फड़फड़ाने की,

पथराई आँखो के मौन

हो चुके शब्दों के कसमसाने की

शब्द भी स्तब्ध रह जाते

सुनाई पड़ती ठक ठक !

कलम  के आवरण से

निकलने की   बैचेनी

सुन लेती हूँ

कब लिखे वो न्याय

मैं न्याय की देवी  प्रतीक्षारत....

महसूस करती हूँ

शायद यहाँ  लोग

काला पहनते होंगे

जो अवशोषित करता होगा

झूठ फरेब  बेईमानी

तभी मंदिर बनता जा रहा

अपराधियों का अड्डा

कब मिलेगा न्याय  और

कैसे मिलेगा न्याय

जब सबूतों को

मार दी  जाती गोली

मंदिर परिसर में

मैं मौन पट्टी बांधे इंतजार में

सबको कब मिलेगा न्याय..

और जग के पालनहार को

कब मिलेगा न्याय .....



©anita_sudhir

Monday, December 16, 2019


 गीतिका (रजनी छन्द )
2122 2122 2122 2
समान्त  आर पदान्त कर देखो
*
प्रभु कृपा जीवन मिला, उपकार कर देखो।
तुम समर्पण प्रेम की बौछार कर देखो ।।

कोठरी काली रही  ,उजले निकल आओ।
नीतियों से आप अब व्यवहार कर देखो ।।

धर्म को बदनाम कर अब आग लगती क्यों
हुक्मरानों का  कभी आभार कर देखो ।।

भूल अपने कर्म ,बनते  भीड़ का हिस्सा ।
छात्र  गुण ही श्रेष्ठ ,अंगीकार  कर देखो ।।

पग बढ़े जो सत्य पथ पर,हो सफल जीवन ।
राह कठिनायी मिले ,स्वीकार कर देखो ।।

https://motibhavke.blogspot.com/

Sunday, December 15, 2019


धुरी

नारि धुरी परिवार की,जीवन का आधार ।
बिन उसके सूना लगे,अपना घर संसार ।।
कैसे अब ये दिन कटे,पत्नी अब नहि साथ।
बच्चों की माता बने ,लिये दायित्व माथ ।।
मासूमों को देख के,होती मन में पीर।
कैसे इनको पालती ,धरे रही तुम धीर।।
जब तक मेरे सँग रही,समझ न पाया मोल।
विधि का विधान कब टला,कड़वा सच ये बोल ।।

स्वरचित
अनिता सुधीर

Saturday, December 14, 2019


कुंडलिया
अलाव

रातें ठंडी हो रहीं ,जलने लगे अलाव ।
रूप निराले शीत के,अलग अलग हैं भाव।।
अलग अलग हैं भाव ,कहीं मौसम की मस्ती,
रहता कहीं अभाव,सड़क पर रातें कटती।
करती क्या सरकार,करे क्या खाली बातें,
हम सब करें प्रयास ,सुखद हो सबकी रातें।।
शिशिर ने दी दस्तक जब
बल पड़े हैं मस्तक पर
कोहरा चारों ओर फैला ऐसे
मानो निगलेगा  सूरज को ।
गुनगुनी धूप को मन
अब तरसने लगे।
प्रातः का अद्भुत दृश्य
ओस बन मोतियां
बिखरी  पत्तियों पर
रिमझिम फुहार बर्फ बन
मानो कोई गीत गुनगुनाती है
पानी की  छुअन
रगों में सिहरन कराती है।
खेतों मे पीली  चादर बिछी हुई
दिन छोटे,रातें लंबी हो जाएं ।
मक्के की रोटी,सरसों का साग
अब मन को भाने  लगे।
रजाई से बाहर निकलने में
हाड़  कंपकपाने लगे,
तब
सोच ये मन दहल जाए
मौसम दिखा रहा तेवर
क्या होगा उनका जो हैं बेघर
प्रकृति की अद्भूत लीला है
देखो ये कैसी विडंबना है
कोई पहाड़ों पर घूमने जाये
कोई ठंड में जान गवाएं ।
अलाव,कंबल का करें इंतजाम
सब मिल गरीबों की
शीत भगाएं।
आओ शिशिर ऋतु को
मोहक बनायें।

Friday, December 13, 2019





कीमत
कीमत का अंदाज नहीं ..

राजनीति की काली कोठर
अफवाहों का बाजार गर्म
आग लगाते नाम धर्म के!
प्राणों की आहुति से
मिली आजादी का
अब  बचा लिहाज नहीं
क्या कीमत का अंदाज नहीं !

जीवनदायिनी प्रकृति से
मिल रही जब मुफ्त हवा
अनर्थ  क्यों करते जा रहे
वृक्ष  काटते जा रहे
बिकने लगेगी मोल जब
तब करना एतराज़ नहीं
कीमत का अंदाज नहीं ..

कितनी रातें जग कर काटीं
गीले में खुद  सो कर वो
सूखे में  हमें सुलाती रही
 कष्टों में जो
हरदम साथ निभाती रही
बूढ़े हाथों की झुर्री में
लिखी संघर्षों की गाथा!
माँ को कभी करना नाराज नहीं
ममता की कीमत का अंदाज नहीं ...

कड़ी धूप में श्रम करें
राष्ट्र निर्माण में अनमोल
योगदान करें
दो रोटी को क्यों तरसें ये
इनके स्वेद कणों के
सम्मान का क्या रिवाज नहीं
क्या समाज में
इनकी कीमत का अंदाज नहीं ..

मिली हमें अनुपम सौगातें
इन पर हमको नाज बड़ा
चुका नहीं सकते इनकी कीमत
करते  रहें  सुकाज यहाँ!
हाथ पे हाथ धरे बैठे
आती तुमको क्या लाज नहीं ..
मिला है हमको ये जीवन
क्या इसके कीमत का अंदाज नहीं ...
©anita_sudhir

Thursday, December 12, 2019

मुक्तक
खामोशी से लबों को चुप कराया है जमाने ने।
जख्म सहते रहे ,तमीजदार हुए अब  घराने में।।
सह रहे घुटन औ दुश्वारियां रिश्तों के बचाने में।
कमजोर नहीं हम,नहीं सहेंगे अन्याय जमाने में।।

लहूलुहान होती रूह पर कब तक मलहम लगाऊं
सदियों से कराहती रूह को कब तक  थपथपाऊँ।
ऐसा नहीं कि मेरे तरकस में शब्दों के तीर नहीं रहते,
तुम्हारी अदालत में अपने साक्ष्य के प्रमाण क्यों लगाऊँ।

Wednesday, December 11, 2019

कहमुक़री 

बाहुपाश में जकड़े जाते,
स्वप्न लोक की सैर कराते।
बिन उसके सूनी है रतिया,
का सखि साजन ,ना सखि तकिया।

रूप सलोना सब मन भाये,
सबके ही वो काम कराये।
तड़पे सब उसके बिन ऐसे,
का सखि साजन ,ना सखि पैसे।

साथ साथ चलता वो रहता,
सीधा साधा कुछ नहि कहता।
गुण ये उसका अतिशय भाया,
का सखि साजन ,ना सखि छाया ।

विरह अग्नि  में पल पल जलती
मिलने को अब आतुर रहती
आस मिलन की  लगती सदियां
का सखि साजन?ना सखि नदियां।

तुम बिन होती है कठिनाई
तुमसे ही ये रौनक छाई
जीवन के पल करते अर्पण
का सखि साजन?ना सखि दर्पण।।
©anita_sudhir








Tuesday, December 10, 2019


10/12/19
मानवाधिकार दिवस
**

इस सभ्य सुसंस्कृत उन्नत समाज में
मानव लड़ रहा अधिकारों के लिए
क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था बनती ,सभी
सिर उठा कर जिये,समता का भाव लिए ।

शिक्षा ,कानून आजादी ,धर्म भाषा
काम  हो सबका मौलिक अधिकार
क्या कभी चिंतन कर सुनिश्चित किया
क्यों नहीं बना अब तक वो उसका हक़दार।

समता के नाम पर क्या किया तुमने
आरक्षण का झुनझुना थमा हीन साबित किया
बांटते रहे रेवड़ियाँ अपने फायदे के लिए
सब्सिडी और कर्ज माफी से उन्हें बाधित किया।

मानव अधिकार की बातें कही जाती हैं
अधिकार के नाम पर भीख थमाई जाती है
देने वाला भी खुश और लेने वाला भी खुश
इस लेनदेन में जनता की गाढ़ी कमाई जाती है।

क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था बनाई जाती है
जहां अधिकार की बातें बेमानी हो जाए
ना कोई भूखा सोए ,न शिक्षा से वंचित हो
भेदभाव मिट जाए,हर हाथ को काम मिल जाये ।

योजनाएं तो बनाते हो पर लाभ नहीं मिलता
बिचौलिए मार्ग में बाधक बन तिजोरी भरते है
कानून का अधिकार है,लड़ाई लंबी चलती है
लड़ने वाला टूट गया बाकी सब जेबें भरते है।

महंगी शिक्षा व्यवस्था है कर्ज ले कर पढ़ते है
नौकरी  गर न मिली  तो कर्ज कैसे चुकायेगें
कर्ज देने मे भी बीच के लोग कुछ  खायेंगे
बेचारा किसान  दोनो तरह से चपेटे में आएंगे।

आयोग बना देने से,एक दिवस मना लेने से
रैली निकाल लेने से ,कुछ नहीं होगा
मानव पहल तुम करो ,दूसरे के अधिकार मत छीनो
खोई हुई प्रतिष्ठा  के वापस लाने के हकदार बनो


अनिता सुधीर


गजल
वक़्त मेरे लिये कुछ निकाला करो।
काम अपने सिरे सब न पाला करो

चार दिन जिंदगी के बचे अब यहाँ,
सन्तुलन अब रहे, कुछ निराला करो ।

साँझ अब जिंदगी की यहाँ हो रही,
वक़्त को साध लो मन न काला करो।

तुम बहुत जी लिये दूसरों के लिये,
खुद कभी को जरा अब संभाला करो ।

दौड़ती ही रही जिंदगी हर घड़ी,
थाम लो अब इसे वक़्त ढाला करो।


अनिता सुधीर

हाइकु  
पथिक
**
पथिक मन 
कल्पनाओं का रथ
नव सृजन ।
**
निशा डगर
चाँद तारे पथिक 
भोर पड़ाव।
**
तन पथिक 
जीवन  अग्नि  पथ 
मृत्यु मंजिल ।
**
सच्चाई पथ 
बाधाएं झंझावात
बढ़ो पथिक ।
**

Monday, December 9, 2019

इस जमाने में हवा ऐसी चली है अब ,
होश खोकर जी रहे इन आंधियों में सब।

भेड़िये अब घूमते चारों तरफ ऐसे,
लूटते हैं बेटियों की अस्मिता !कैसे
पापियों के पाप से अब नर्क है जीवन
नोच! जिंदा लाश करते दुष्ट ये कैसे ।
फैसला हो शीघ्रता से राह निकले तब।।
इस जमाने में ..

क्यों बिना मक़सद जिये हम जा रहे ऐसे
साँस लेना जिंदगी !सोची कहाँ वैसे।
मौत के पहले किसी के काम आ पाती,
मौत भी शायद ठिठक कुछ देर रुक जाती।
बाण शब्दों के चला चुप बैठते है सब
इस जमाने में .

जल न पाए अब कभी ये बेटियां  वैसे
प्रेम उपवन हो सजा  चहका  करें ऐसे
अब यही उद्देश्य ,जीने का हमारा हो,
हो खुशी जग में  !न कोई बेसहारा हो।
भाव रखते ये सदा  हो आस पूरी अब।
इस जमाने में ..

Sunday, December 8, 2019






गीतिका 
आधार छंद- गंगोदक (मापनीयुक्त मात्रिक)
मापनी- 212 212 212 212 , 212 212 212 212
समांत- आन, पदान्त - है
बाँध टूटे नहीं धैर्य का इस तरह, ये हुआ देश का घोर अपमान है ।
जो व्यवस्था चले अब उचित रूप में,न्याय में शीघ्रता ही समाधान है ।
लूटते अस्मिता नारि की जो रहे,कोख में मार के मर्द बनते रहे,
काम अरु क्रोध में लिप्त जो नर हुये,भूल क्यों वो गये बेटियाँ मान है।
मेघ ये क्यों सदा ही बरसते रहे,आंधियों की लहर जीवनी बन चली,
आसरा जो दिये मुश्किलों में सदा,नाम के अब उन्हीं का सकल गान  है।
तत्व ये मूल भूले रहे हम सदा,त्याग जग में रहा प्रेम का सार है,
साधना वो करे श्रेष्ठतम की सदा, सभ्यता संस्कृति का जिन्हें भान है ।
भोग करते रहे इस जगत में सदा ,योग क्यों  ईश सँग
हम किये ही नहीं ,
आस सुख की लिये मोह में लिप्त हैं,नाश जो हो अहम का वही ज्ञान है।

स्वरचित
अनिता सुधीर

Friday, December 6, 2019

परिणय

मैं तुमसे प्रेम करती हूँ
तुममें अपना प्रतिबिम्ब
देखने की कोशिश
करती हूँ ।
परिणय के बंधन में बंधे
उन वचनों को ढूँढती हूँ ।
तुममें अपना बिम्ब
तलाशते संग संग
इतनी दूर चले आये ।
कभी तुममें अपना
प्रतिबिम्ब मिला
कभी वक़्त के आईने में
कितने ही प्रतिबिम्ब
बनते   बिगड़ते
गडमड नजर आए ।
कुछ संजोए है
कुछ समेटने की कोशिश
मे बिखरते नजर आए है।
वक़्त की आंधियों मे
कुछ बिम्ब धुंधले
नजर आते है,पर
मैं तुमसे प्रेम करती हूँ
उन वचनों में  बंधी
मैं अपना प्रतिबिम्ब
तुममें ही  खोजती  हूँ।

अनिता सुधीर

Thursday, December 5, 2019

पाखंड

सत्य वचन ये मानिये ,असली धन है ज्ञान।
लिप्त हुआ पाखंड यदि,होये गरल समान ।।

देवि रूप में पूज के ,करें नारि अपमान।
कैसा ये पाखंड है ,बिसरे अर्थ महान ।।

शीत लहर में मर  गया ,भिक्षुक मंदिर द्वार ।
मूरत पर गहने सजे ,.... पाखंडी संसार ।।

देख कमण्डल हस्त में ,चन्दन टीका माथ ।
साधु वेश पाखंड जो, लिये नारि का साथ ।।

लिये धर्म की आड़ वो,करते क्यों पाखंड ।
कर्मों के इन फेर में ,....भोगे मानव दंड ।।

मनुज ग्रसित पाखंड से ,लोभ रहा आधार ।
बनिये बगुला भगत नहि,करिये शुद्ध विचार ।।

पंच तत्व निर्मित जगत,चेतन जीवन सार
दूर करें पाखंड जो , मन  हो एकाकार।

Wednesday, December 4, 2019


गजल


आप की नजरें इनायत हो गयी
आप से मुझको मुहब्बत हो गयी।

इश्क़ का मुझको नशा ऐसा चढ़ा
अब जमाने से अदावत हो गयी ।

तुम मिले सारा जहाँ हमको मिला
यूँ लगे पूरी इबादत हो गयी।।

ये  नजर करने लगी  शैतानियां
होश खो बैठे  कयामत हो गयी।

जिंदगी सँग आप के गुजरा करे
सात जन्मों की हकीकत हो गयी।














Monday, December 2, 2019






कोहरे के माध्यम से आज की समस्याओं और समाधान पर लिखने का प्रयास किया है
कई शब्द अपने मे गहन अर्थ समेटे है आप की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।

कोहरा

जब उष्णता में आये कमी
अवशोषित कर वो नमी
रगों में सिहरन का
एहसास दिलाये
दृश्यता का ह्रास कराता
सफर को कठिन बनाता है
कोहरा चारों ओर फैलता जाता है।
संयम से सजग हो
निकट धुंध के  जाओ..
 और भीतर तक जाओ
कोहरे ने सूरज नहीं निगला है
 सूरज की उष्णता निगल
लेगी कोहरे को ।
सामाजिक ,राजनीतिक
परिदृश्य भी त्रास से
धुंधलाता जा रहा
रिश्तों की धरातल पर
स्वार्थ का कोहरा छा रहा
संबंधों की कम हो रही उष्णता
अविश्वास द्वेष की बढ़ रही आद्रता
कड़वाहट बन सिहरन दे रही
विश्वास ,प्रेम की  किरणें
लिए अंदर जाते  जाओ
दूर से देखने पर
सब धुंधला है
पास आते जाओगे
दृश्यता  बढ़ती जायेगी
तस्वीर साफ नजर आएगी।
दोहा गजल


मन में कोमल भाव नहि,यही प्रेम आधार।
व्यथित !जगत की रीति से,कैसे निम्न विचार।।

नफरत की आँधी चली ,बढ़ा राग अरु द्वेष,
अपराधी अब बढ़ रहे, दूषित है आचार ।

जग में ऐसे लोग जो ,करें नारि अपमान
व्याधि मानसिक है उन्हें ,रखते घृणित विकार ।

निम्न कोटि की सोच से,करते वो दुष्कर्म
लुप्त हुई संवेदना ,क्या इनका  उपचार ।

रंगहीन जीवन हुआ,लायें सुखद प्रभात,
संस्कार की नींव हो,मिटे दिलों के रार ।

स्वरचित

Sunday, December 1, 2019

 आक्रोश
नवगीत

कागज पर उतरता आक्रोश

भावों की  कचहरी  में
शब्दों के गवाह बना
कलम से सिद्ध करते दोष
और फिर हो जाते खामोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

मोमबत्तियां जल जाती हर बार
जुलूस भी निकाल लिये जाते
पर वासना से उत्पन्न
गंदी नाली के कीड़ों में
अब कहाँ बचा है होश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

बालिका संरक्षण गृह में
ही फल फूल रहे
सभी तरह के धंधे
मासूम कहाँ है सुरक्षित
मजबूरी में करती जिस्मफरोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

प्याज  निकाल रहा आँसू
गोड़से पर चल रही राजनीति
बिकने के लिये तैयार बैठे
ये  सफेदपोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

सनद रहे
हम भारत की संतान हैं
ये जन जन का आक्रोश
सदैव क्षणिक न रह पायेगा
उठ खड़ा होगा
अपने अधिकार के लिए,
व्यवस्था कब तक रहेगी बेहोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

स्वरचित
अनिता सुधीर






Saturday, November 30, 2019




दोहावली

बनारस 
***
वरुणा असि के नाम से ,पड़ा बनारस नाम ।
घाटों की नगरी रही ,कहें मुक्ति का धाम ।।

विशिष्टता इन घाट की ,है काशी की साख।
होती गंगा आरती  ,कहीं चिता की राख ।।

विश्वनाथ बाबा रहे ,काशी की पहचान ।
गली गली मंदिर सजे,कण कण में भगवान।।

गंगा जमुना संस्कृति ,रही बनारस शान ।
तुलसी रामायण रचें,जन्म कबीर महान ।।

कर्मभूमि 'उस्ताद' की , काशी है संगीत।
कत्थक ठुमरी की सजे ,जगते भाव पुनीत।।

काशी विद्यापीठ है  ,शिक्षा का आधार ।
विश्व विद्यालय हिन्दू,'मदन' मूल्य का सार।।

दुग्ध ,कचौरी शान है ,मिला'पान 'को मान ।
हस्त शिल्प उद्योग से ,'बनारसी' पहचान ।।

त्रासदी अधजले शवों ,की !भोग रहे लोग।।
गंगा को प्रदूषित करें ,काशी को ही भोग ।।

बाबा भैरव जी रहे , काशी थानेदार ।
हुये द्रवित ये देख के ,ठगने का व्यापार।।

धीरे चलता शहर ये,अब विकास की राह।
काशी मूल रूप रहे ,जन मानस की चाह ।।

©anita_sudhir
शहर

आधुनिक होते ये शहर..

खेतों में मकान की फसलें
गुम होती पगडंडियां
विकसित होते महानगर
खंडहर होते धरोहर
और आधुनिक होते ये शहर..

जीवन की आपाधापी में
बेबस सूरतें लिये
दौड़ते भागते लोग
चाहे हो कोई भी प्रहर
और आधुनिक होते ये शहर..

बहुमंजिली इमारतों में
अजनबी हर इंसान
स्वार्थ पर टिके रिश्ते
भावनायें हो रही पत्थर
और आधुनिक होते ये शहर..

धुआँ छोड़ते कारखाने
वाहनों का धुआँ
कटते जा रहे  पेड़
हवा में  फैलता जहर
और आधुनिक होते ये शहर..

बढ़ती जा रहा  फूहड़ता
आये दिन  निर्भया कांड
घटना का वीडियो बनाते लोग
भूलते जा रहे अपने संस्कार
और आधुनिक होते ये शहर..

लुप्त  होते गौरैया के घोंसले
वृद्धाश्रम में बढ़ी भीड़
पाप का भार से मैली होती नदियाँ
टूटा समाज पर कहर
और आधुनिक होते ये शहर..

अब चले ऐसी लहर
जीयें लोग नहीँ सिहर सिहर
खिले पुष्प अब निखर निखर
हो ये मेरे सपनों का शहर
ऐसा आधुनिक  हो मेरा शहर..

अनिता सुधीर













Friday, November 29, 2019


विधा      चौपाई
विषय    माँ और  बच्चों के  मनोभाव को दिखाने का प्रयास
***
माँ  के मनोभाव
***
होती चिन्ता चिता समाना ।मरम नहीं पर मेरा जाना।।
हर आहट पर सहमी जाती। संतति जब तक घर नहि आती।।
सब कहते हैं चिन्ता  छोडें।कैसे अपनों से मुख मोड़ें।।
लहु से सींचा पाला तुमको । दिन अरु रात न भूले तुमको ।।

****
संतान

बड़े हुये अब हम सब बच्चे।नहीं रहे कोई हम कच्चे।।
साथ आपका सदैव रहता,किसी स्थिति में डर नहि लगता।।
रोग नहीँ माँ कोई घेरे ।बच्चे  चिन्ता करते  तेरे।।
हम बच्चों का आप सहारा । आप बिना कुछ लगे न प्यारा।।

****
सुने शब्द बच्चों के मुख से।छलकी आंखें माँ की सुख से।
किस्मत वाले उनको कहते ।मातु पिता बच्चों सँग रहते ।।,
हालत पूछो जाकर उनसे,शीश हाथ नहि पाया कबसे ।।
बना रहे रिश्तों का बंधन।करें सभी मिल कर ये वंदन।।


अनिता सुधीर

Thursday, November 28, 2019

शब्द युग्म ' का प्रयास

चलते चलते
चाहों के अंतहीन सफर
मे  दूर बहुत दूर चले आये
खुद ही नही खबर
क्या चाहते हैं
राह से राह बदलते
चाहों के भंवर जाल में
उलझते गिरते पड़ते
कहाँ चले जा रहे है ।

कभी कभी
मेरे पाँवों के छाले
तड़प तड़प पूछ लिया करते हैं
चाहतों का सफर
अभी कितना है बाकी
मेरे पाँव अब थकने लगे है
मेरे घाव अब रिसने लगे है
आहिस्ता आहिस्ता ,रुक रुक चलो
थोड़ा थोड़ा  मजा लेते चलो।


हँसते हँसते
बोले हम अपनी चाहों से
कम कम ,ज्यादा ज्यादा
जो  जो भी पाया है
सहेज समेट लेते है
चाहों की चाहत को
अब हम विराम देते है
सिर्फ ये चाह बची है कि
अब कोई चाह न हो ।

Wednesday, November 27, 2019

साथ जो हमने किये थे रतजगे
दिलजलों के अनकहे भी खूब थे ।

ख़्वाब पलकों पर सजाते जो रहे
इश्क़ तेरे फलसफे भी खूब थे ।

अश्क़ जो आखों से उस रोज बहे थे
बादल उस दिन बरसे भी खूब थे ।

अलग राहों पर कदम निकल पड़े है
दरमियां हमारे फासले भी खूब थे ।

जी रहे तन्हाई में कैसे है हम
आप के तो कहकहे भी खूब थे ।


Tuesday, November 26, 2019

**मेहंदी



बड़ी जद्दोजहद हुआ करती थी

तब हिना का रंग चढ़ाने में,

हरी पत्तियों को बारीक पीसना

लसलसे लेप बना कर

सींक से आड़ी तिरछी रेखाओं को उकेरना ,

फूल,पत्ती ,चाँद सितारे ,बना उसमें अक्स ढूंढना

मेहंदी की भीनी खुश्बू से सराबोर हो जाना ।

सूखने और रचने के बीच के समय में

दादी का प्यार से खाना खिलाना ,

कपड़े में लगने पर माँ की डांट खाते जाना

सब साथ साथ चला करता था।

सहेलियों के चुहलबाजी का विषय

रची मेहंदी के रंग से पति का प्यार बताना

भूला बिसरा  अब याद आता है ।

तीज त्यौहार की शान है मेहंदी

सौभाग्य का सूचक मेहंदी ,

स्वयं पिसती और कष्ट सह,

दूसरों की झोली खुशियों से भरती मेहंदी।

दुल्हन की डोली सजती,

पिया को लुभाती है मेहंदी

पुरातन काल से रचती आ रही मेहंदी

उल्लास से हाथों में सजती आ रही मेहंदी।

समय बदला ,हिना का रंग बदला!

अब मेहंदी गाढ़ी  ,गहरी रच जाती है

शायद प्राकृतिक रूप खो  चुकी है

इसीलिये दो दिन में बेरौनक हो जाती है।

अब पिसने के बाद रंग नहीं आता

तो प्यार का रंग नहीं बता पाती

इस लगने और  रचने के बीच

कोई बहुत पास होता है

जो हाथ की लकीरों में रचा बसा होता है

और उससे ही होती है  हाथों में  मेहंदी ।

©anita_sudhir

Monday, November 25, 2019


आज की नारी

दस भुजा अब रक्खे नारी ,करते तुम्हें प्रणाम
बाइक पर सवार हो, तुम चलती खुद के धाम।

सरस्वती अन्नपूर्णा हो तुम,लिये मोबाइल हाथ
पुस्तक बर्तन लैपटॉप  ,रहते तेरे साथ ।


ममता की देवी करें कुरीतियों पर प्रहार
पर्याय शक्ति कौशल की , करती बेड़ा पार ।

श्रृंगार बिन अधूरी ,सजाती चूनर लाल
कामकाजी गृहिणी हो तुम ,उन्नत तेरा भाल ।।

Sunday, November 24, 2019

 विलोम शब्द का प्रयोग कर
सरसी छन्द में रचना...


*सुख *दुख तो आना जाना है,मन क्यों करें उदास।
*पतझड़ बाद *बहारें आतीं  ,करें हास परिहास ।।

डोर *आस की थामे रहिये,होते नहीं *निरास।
दीप जले घर घर *खुशियों के,*गम में नहीं उदास ।।

*नीच *ऊंच अंतर मिट जाये ,ऐसा करें प्रयास ।
रहे नहीं *गरीबी *अमीरी , हो चहुँ ओर उजास ।।

*सतकर्मों की गठरी बांधो,*दुष्कर्मों से त्रास ।
परम सत्य है *जीना *मरना,रखिये मन में आस।।
आधार छंद - विधाता (मापनी युक्त मात्रिक)
मापनी - 1222. 1222. 1222. 1222
समांत - ' आया ' , पदांत - ' है ' .
महाराष्ट्र के घटनाक्रम पर
**
निलामी हो रही उनकी,उन्हें बस में बिठाया है,
लगी है हाजिरी उनकी ,उन्हें कैदी बनाया है ।

तमाशा वो दिखाते हैं कपट का खेल जारी है ,
खिलाड़ी वो पुराने हैं,समझ कोई न पाया है ।

कहानी ये पुरानी है ,लिखी हर बार जाती है,
चुनावों का सबब देखो,नतीजा खुद सुनाया है ।

न जाने कल कहाँ होगी ,किसी को ज्ञात कैसे हो,
सियासी चाल में देखो ,सभी को अब फँसाया है ।

मुकद्दर में लिखा क्या है,सभी कल जान जाओगे,
कि दिल ये थाम के बैठो ,कचहरी कल  बुलाया है।

किया बदनाम तुमने जो ,छिछोरी हरकतें करके
दिखाना चाहते क्या हो  , सही अंजाम पाया है!

अनिता सुधीर

Saturday, November 23, 2019



212  212  212  212
काफिया   आ
रदीफ़      मिल गया
***
इश्क़ की राह में बेवफा मिल गया,
जिंदगी को नया मशविरा मिल गया ।

छोड़ के चल दिये यों अकेले मुझे ,
आपको साथ क्या अब नया मिल गया।

याद फिर आपकी आज आने लगी ,
जख्म फिर इक पुराना खड़ा मिल गया ।

भूल पाते नहीं आपको हम कभी ,
प्यार का ये मुझे क्यों सिला मिल गया ।

टूटते ख्वाब की ये कहानी रही ,
रात फिर आज कुछ अनकहा मिल गया।

रूबरू जो हुये हम खुदी से अभी,
चाहतों का नया सिलसिला मिल गया।

अनिता सुधीर

Friday, November 22, 2019

इसका महाराष्ट्र से कोई लेना देना नहीं है 🤑🤑मुहावरों का प्रयोग 

"कहीं की ईंट,कहीं का रोड़ा "
"भानुमति ने कुनबा जोड़ा ।"
सबके "हाथ पाँव फूले" हैं,
दोस्ती में "आँखे फेरे "है।
"फूटी आंख नही सुहाते "
वो अब "आँखों के तारें" है ।
कब कौन किस पर" आंखे दिखाये"
कब कौन कहाँ से "नौ दो ग्यारह हो जाये" ।
"विपत्तियों का पहाड़"  है
 "गरीबी मे आटा गीला "हो जाये ।
"बंदरबांट "चल रही
"अंधे के हाथ बटेर " लगी
पुराने "गिले शिकवे भूले "हैं
"उलूक सीधे कर" रहे 
"उधेड़बुन में पड़े"
"उल्टी गंगा बहा" रहे
जो "एक आँख भाते नहीं "
वो "एक एक ग्यारह हो रहे"
कौन किसको "ऊँगली पर नचायेगा"
कौन" एक लाठी से हाँक पायेगा"
"ढाई दिन की बादशाहत" है
"टाएँ टाएँ फिस्स मत होना "।
"दाई से पेट क्या छिपाना "
बस "पुराना इतिहास मत दोहराना" ।

अनिता सुधीर



Thursday, November 21, 2019








पेंडुलम

अपने ही घर में
अपनों के बीच
अपनी ही स्थिति
से द्वंद करते
अपने मनोभावों में
इधर उधर विचरती
#पेंडुलम की तरह
मर्यादा की रस्सी से बंधी
दीवार पर लटकी रहतीं
ये स्त्रियां ......
समाज की वर्जनाओं के
नित नए आयाम छूती
दो विपरीत ध्रुवों में
मध्यस्थता कर अपने
विचारों को दफन करती,
एक भाव की उच्चतम
स्थिति पर पहुँच
गतिशून्य विचारशून्य
हो दूसरी दिशा के
उच्चतम शिखर पर
चल पड़तीं
ये स्त्रियां.....
अपने ही घर में
अपने वजूद को सिद्ध करती
अपने होने का एहसास दिलाती
भावों से भरे मन के
बावजूद निर्वात अनुभव
करते पूरी जिंदगी
पेंडुलम की  तरह
कल्पनाओं में
इधर उधर डोलती
रहती  हैं
ये स्त्रियां......
©anita_sudhir

Tuesday, November 19, 2019

पुरुष
**
पुरुषों को बड़ी आसानी से हम दोष दे देते है
माँ बेटी बहन तुम्हारे घर में, नही कह देते है ।

क्या कहोगे,नारी ही नारी की दुश्मन बन जाए
बाग का माली ही कलियों का भक्षक बन जाए।

नारी होकर जब नारी का मर्म समझ न पायी
कर सारे कृत्य घिनौने ,क्या तुम्हें शर्म न आयी ।

सारी नारी जाति को शर्मिंदा कर के रख दिया
सीता दुर्गा के देश मे ये नंगा खेल रच दिया ।

समाज कहाँ जा रहा,क्या है परिवार के मायने
अब कौन कहाँ सुरक्षित है,यक्ष प्रश्न है सामने ।

Monday, November 18, 2019









बरगद और बोनसाई

वो बरगद का पेड़ ,वो अपना गांव,
वो  गोल चबूतरा,वो पेड़ की ठंडी छांव ।
बचपन मे सुना था बहुत पुराना है पेड़
अपने मे युग समेटे  वो बरगद का पेड़ ।
पेड़ों पर पड़ते थे झूले, लगती गांव की चौपाल वहाँ
रेडियो से मिलता था,दुनिया जहान का हाल वहाँ ।
बच्चों  की धमाचौकड़ी से वो चबूतरा आबाद था ,
काकी फूआ ने बांध कलावा वटवृक्ष को
मांगा "सावित्री "सा अमर सुहाग था ।
सीखा बरगद की जटाओं (  prop roots) से
जितना ऊपर उठते जाओ,अपनी मिट्टी से जुड़े रहो
दे संबल वटवृक्ष को ,जटायें कहती एक हो के रहो ।
छूटा  गाँव  ,छूटी बरगद  की छांव
यादोँ में है अब वो बचपन का  गाँव ।
......अब घर मे बरगद का बोनसाई
मिट्टी की कहतरी मे, सुंदरता  मनभाई ।
ताप से पत्ते झड जाए ,तो रिश्तों में ताप कहाँ
मनभावन तो है वो ,पर उसमें वो छाँव कहाँ ।
कद छोटा करे जीवन का ,लोग कहे,पर
मैं हो लेती आल्हादित देख बोनसाई को
संजो लेती यादें ,जी लेती बचपन को ।
 वो बरगद का पेड़, वो अपना गांव
कितने रिश्तों का साक्षी वो बरगद की छाँव ।

Sunday, November 17, 2019

नादानी
छंदमुक्त
***

नादानी में यूं जिंदगी दांव पर लगा रहे
क्यों इन हुक्मरानों के झांसे में आ रहे

कहीं अनशन कहीं पत्थर कहीं गोली है
एक मोहरा बन खेलते खून की होली है।

कभी ये सोचा है हाथ तेरे क्या आयेगा
इस भरी दुनिया मे तू अकेला रह जायेगा

एक दिन गुमनाम गलियों में गुम जायेगा
तेरा कोई नामोंनिशान यहाँ ना रह पायेगा।

जो किया भूल जाओ, देर नही हुई है
सुधर जाओ अभी जीने के रास्ते कई हैं

शिक्षालयों में संस्कृति की नींव तोड़ा नहीं करते
सुबह का भूला घर लौटे,उसे भूला नहीं कहते

हौसले को उड़ान दे नया सफर शुरू करो
मेहनत लगन से अपनी नई मंजिल तय करो ।

अनिता सुधीर

Friday, November 15, 2019

दर्दनाक घटनाक्रम को  दर्शाती कुछ पंक्तियां
*acid    attack*
सुन सगाई की खबर उसकी ,सहन ना कर पाया 
हिम्मत ना थी कहने की ,एकतरफा प्यार करता था 
कुंठा से ग्रसित हुआ ,बदला लेने की सोची
अगर मेरी ना हुई वो ,तो किसी की ना होगी
टी वी सीरियल से देख एसिड अटैक उसने सीखा
काला कपड़ा  बांध कर,तेजाब चेहरे पर फेंका 

दर्द से कराहती रही वो, जलन से जलती रही 
आँखो की रोशनी जाती रही, सर्जरी चलती रही
चेहरा ऐसा भयानक हुआ,आईने में देख डरने लगी
आईने पर पर्दे डाल दिये,बैठ हालात पर रोती रही
आँसुओ से जलन होने लगी ,धन भी खत्म होता रहा
एक डर बैठ गया मन में, कोई खड़ा है आँगन मे
पहले बहन कहा था,रिश्ते का विश्वास टूटा क्षण में

एक इल्तिजा है  थोड़ा तेजाब उस पर गिराओ
मौत की सजा थोड़ी है जलन का एहसास कराओ 
ये घटना दोबारा ना हो ऐसे कड़े कदम उठाओ
पीड़िता को सम्मान से जीने का हक़ दिलवाओ ।

अनिता सुधीर 

Thursday, November 14, 2019

बाल दिवस विशेष
एक लघु नाटिका के माध्यम से
आज के संदर्भ में

*दृश्य  1 *
(बच्चे मोबाइल में व्यस्त है और दो-तीन लोग टहल रहे हैं )
रमा... क्या जमाना आ गया है ,आजकल के बच्चे जब देखो तब मोबाइल में डूबे रहते हैं ,पता नहीं कैसे पेरेंट्स  हैं  जो बच्चों का ध्यान नहीं रखते ,और इतने कम उम्र में ही मोबाइल थमा देते हैं ।
अब देखो पार्क में आयें है तो कुछ खेलने  की बजाय
मोबाइल लिए बैठे हैं ।
बीना  ...सच कह रही हो   रमा तुम ,एक हम लोगों का समय था कितना  हम लोग खेला करते थे कभी खो खो तो कभी बैडमिंटन और शारीरिक व्यायाम तो खेल खेल  में ही हो जाता था। उस समय की दोस्ती भी क्या दोस्ती हुआ करती थी।

 रमा  ... तुमने तो बचपन की वह मीठी बातें याद दिला दीं  ,चलो दो चार गेम हो जाये ।
वीना ... पागल हो गयी हो क्या ,इस उम्र में अब हम लोग क्या खेलेंगे ,
 बचपन ही याद करती रहोगी या घर भी चलोगी
रमा .... अरे आओ हम भी अपना बचपन  जी लेते  हैं।
वीना  ..  सचमुच बड़ा मजा आ गया ,वाह वाह
अच्छा बहुत हो गया , चलो अब  घर चलो
 रमा ... हर  समय घर घर किये रहती हो ।
अरे चलती हूं मुझे तो कोई चिंता नहीं है
मेरी बेटियां पढ़ाई के लिए बहुत सिंसियर है ।
 मैं उनको बोल के आई हूँ , वो तो पढ़ाई में व्यस्त   होंगी और मुन्नी को बोल कर आई हूं,वो घर के सारे काम कर रही होगी ।
बीना  ...तेरी तो मौज है ,अब मुझे ही देख  !घर जाकर अभी खाना बनाना फिर बच्चों की पढ़ाई में उनके साथ बैठना ,मेरा तो सारा समय इसमें ही निकल जाता ही निकल जाता है  ।
अच्छा रमा  क्या मुन्नी को भी पढाती हो तुम ....
रमा ....मुन्नी को पढ़ा  कर क्या करूंगी ,करना तो उसे यही  काम है ,कौन सा कलेक्टर बनी जा रही महारानी  ।और फिर घर का काम क्या  मैं करूंगी?
वीना  ... अरे वो तो मैं ऐसे ही पूछ रही थी ।

*दृश्य दो *
रमा का घर
मुन्नी मुन्नी कहां मर गई तू ,देख रही है मैं बाहर से आ रही हूं तो रही हूं तो पानी तो पिला दे
आई मेमसाब  ..
तू बच्चों के कमरे में क्या कर रही है ?जब देखो वहीं रहती है ,कुछ कामधाम नहीं होता तुझे
वह पढ़ रहे हैं तो उन्हें  पढ़ने दे उन्हें क्यों डिस्टर्ब कर रही है  चल अपना काम कर ,कामचोर हो गयी है।
रमा सोचते हुए ,मेरी बेटियां मेरा  गुरूर है कितना पढ़ती है ,न मोबाइल न किसी से  दोस्ती ,ये लोग बहुत  नाम कमाएंगी ।
(थोड़ी देर बाद  रमा )
बड़ा सन्नाटा  लग रहा है देखूँ ये लड़कियां कर क्या रही है
बेटियां मां के आने की आहट सुन अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो जाती हैं और मुन्नी कपड़े तह करने लग गयी।
रमा  ....कितनी अच्छी बेटियां हैं मेरी
जब देखो तब यह पढ़ती  ही रहती हैं ।
 मुन्नी तूने अभी तक  कपड़े नहीं तह किये ?  अभी सारा काम पड़ा है ,करती क्या रहती है तू सारा दिन अभी खाना भी बनाना है तुम्हें
 (दृश्य 3)
 रमा तुम सब लोग अपने अपने काम करो
 मैं जरा पड़ोस की आंटी के यहां से होकर आती हूं.
 ठीक है मां आराम से जाओ ,और आराम... से आना
 रमा के जाने के बाद बेटियां  फिर से मोबाइल में व्यस्त हो गई और मुन्नी पढ़ाई में .
मुन्नी  कहां हर समय तू  किताबों में सर खपाती  है आओ तुम्हें मोबाइल में अच्छे-अच्छे गेम दिखाएं.. मुन्नी ...अरे नहीं दीदी
मेम साहब जब बाहर गई हैं तभी मुझे पढ़ने का मौका मिला है ।वह आ जायेंगी तो मुझे उनकी डांट भी खानी पड़ेगी और काम में जुटना होगा होगा।
 मेरी परीक्षा आ रही है तो मुझे जैसे ही अवसर मिलता है मैं अपनी  पढ़ाई कर लेती हूं ।
इस तरह से घर के कामों के साथ मेरी पढ़ाई भी चल रही है ।
पढ़ाई कर लूंगी तभी मेरे जीवन में सुधार आएगा।

बेटियां मुन्नी कीबातेँ सुन हतप्रभ हो सोच रही हैं 
मैं किस को धोखा दे रही हूं
 एक तरफ मुन्नी है जो मां के जाने के बाद पढ़ाई कर रही है और हम लोग अपना समय व्यर्थ कर रहे हैं ।
माँ पापा इतनी मेहनत करते हैं और स्कूल की फीस ,कोचिंग की फीस ,सभी सुविधाएं देते हैं और  हम लोग मां  को धोखा दे रहे हैं ।
और सही अर्थ में मां को धोखा न देकर  स्वयं को ही  धोखा दे रहे हैं ।
मन ही मन मुन्नी को धन्यवाद देते  हुए
मुन्नी तुमने तो हम लोगों की आंखें खोल दी और हमें नैतिकता  और शिक्षा का महत्वपूर्ण पाठ समझा दिया । और एक बात मुन्नी हम लोग माँ से  तुमहारी
पढ़ाई की बात करेंगे
  मुन्नी के चेहरे पर खुशी और बेटियों को आत्मसंतुष्टि ...
बचपन  शिक्षा  और नैतिकता के मार्ग पर अग्रसर

स्वरचित
अनिता सुधीर

जेब
कुंडलिया

खाली हो यदि जेब तो ,बिखरे मन की आस।
धन से परि  पूरित रहे  , देती  मन विश्वास ।।
देती मन  विश्वास  , जेब की महिमा न्यारी ।
मिलता है सम्मान ,जेब हो जिसकी  भारी।।
रौनक है त्यौहार    ,जेब से मने  दिवाली।
सत्कर्मों से जेब भर , यहाँ से जाना खाली ।।

©anita_sudhir

Wednesday, November 13, 2019





बचपन
बाल दिवस विशेष

***
दादी बाबा संग नहीं
भाई बहन का चलन नहीं
नाना नानी दूर हैं
और बच्चे...
एकाकी बचपन को मजबूर हैं ।
भौतिक सुविधाओं की होड़ लगी
आगे बढ़ने  की दौड़ है
अधिकार क्षेत्र बदल रहे
कोई  कम क्यों रहे
मम्मी पापा कमाते हैं
क्रेच छोड़ने जाते हैं
शाम को थक कर आते हैं
संग समस्या लाते हैं
बच्चों  खातिर समय नहीं
मोबाइल , गेम थमाते है
बच्चों के लिये कमाते हैं
और बच्चे ...
बचपन खोते जाते हैं ।
आबोहवा अब शुद्ध नहीं
सड़कों पर भीड़ बड़ी
मैदान  खेल के लुप्त हुए
बस्ते का बोझ बढ़ता गया
कैद हो गये चारदीवारी में
न दोस्तों का संग  मिला
बच्चों का ....
बचपन खोता जाता है
बच्चा समय से पहले  ही
बड़ा होता जाता है।
याद करें
अपने बचपन के दिन
दादी के  वो लाड़ के दिन
भाई बहनों संग मस्ती के दिन
दोस्तों संग वो खेल खिलौने के दिन
क्या ऐसा बचपन अब बच्चे पाते हैं
बच्चे ....
अपना बचपन खोते जाते हैं
आओ हम बच्चों का बचपन लौटाएं
स्वयं उनके संग बच्चे बन  जायें
वो बेफिक्री के दिन लौटा दें
बच्चों का बचपन लौटा दें।
©anita_sudhir
http://nisargmagazine.com/?p=1455

Tuesday, November 12, 2019

*बेटी


**
शिक्षा पर अधिकार ,काँधे पर बस्ता डाल,
साथ चले  पग चार ,बेटी को पढ़ाइये ।

नींव सभ्य समाज की,खुशी 'दो'परिवार की,
शिक्षा का महत्व  अब  , बेटी को बताइये।

है राह नहीं आसान,स्वयं  बने पहचान,
बेटे के  समान ही ,  बेटी को भी पालिये  ।

हर क्षेत्र में अग्रणी ,सर्व सम्पन्न और गुणी,
शिक्षा से पायें मंजिलें, कम नहीं आंकिये ।

बुरी नजर न डाल ,कोख में अब न मार ,
ये  हैं सृष्टि का आधार ,बेटी को बचाइये  ।

***
©anita_sudhir

Monday, November 11, 2019


तमस

क्यों पिघल रहा विश्वास
क्यों धूमिल हो रही आस
कैसा फैला ये तमस
चहुँ और त्रास ही त्रास ।

कोने में सिसक रही कातरता से
मानवता जकड़ी गयी दानवता से
राह दुर्गम ,कंटको से है रुकावट
जन जन शिथिल हो गया थकावट से।

संघर्ष कर तू आत्मबल से
जिजीविषा को रख प्रबल
भोर की तू आस रख
सत्य मार्ग पर हो अटल ।

आंधियों मे भी जलता रहे
दीप आस की जलाए जा
मन का तमस दूर कर
उजियारा तू फैलाए जा ।

Sunday, November 10, 2019






नशा
दोहावली

वर्तमान का हाल ये ,फैशन बना शराब।
मातु पिता सँग पी रहे,देते तर्क खराब ।।

दिन भर मजदूरी करें ,पीते शाम शराब ।
पत्नी को फिर पीटते,करते जिगर खराब ।।

देते ये चेतावनी, पीना कहें ख़राब ।
ठेके पर बिकवा रही,शासन स्वयं शराब ।।

सबको  गिरफ्त में लिया ,हुये नशे में चूर ।
जीवन सस्ता हो गया ,हुये सभी से दूर ।।

लोग नशीले  हो रहे ,खाते गुटखा पान ।
नशा मुक्त संसार हो ,ऐसा हो अभियान।।
©anita_sudhir

Saturday, November 9, 2019


बाल गीत
विधान चौपाई छन्द  चार चरण 16 मात्रा
***
देखो सुंदर चिड़िया आई,मुख में दाना भर के लाईं
अपने बच्चों को दाना दे,मन ही मन चिड़िया हरषाई

चुन्नू  मुन्नू गप्पू आओ ,इनके सँग मस्ती कर जाओ,
कितनी चिड़िया डाली पर है ,तुम ये गिन गिन कर बतलाओ।
तीन चार पाँच सात छह दस ,उतरी सब मेरी अँगनायी
चींचीं कर बोली ये चिड़ियां,हमको ये फुलवारी भायी
देखो सुंदर..

कितने कितने दिन में सुनते ,इनकी मीठी मीठी वाणी
कहाँ चली जाती हो तुम सब, कहाँ मिले है दाना पानी ,
पेड़ों पर मेरा घर सुंदर,माँ पंखों का आँचल छायी
माँ जब जब हमको दुलराती,खुशियों से जीवन भर पायी

देखो सुंदर..
खेल 'उड़ी चिड़िया' का खेला,बचपन की यादों का रैला
रहे उड़ाते दिन ये आया,गुम होता चिड़ियों का मेला
लुप्त हुई प्रजाति अब इनकी,क्या ये जीवन की सच्चाई ,
पर्यावरण बचा ले जो हम,ये सब छत पर फिर  मडँराई।
देखो सुंदर..

स्वरचित
अनिता सुधीर
एक गीत लिखते है

***
भावों के मोती चुन चुन कर,सृजन नया अब करते हैं,
नेह निमंत्रण मिला आपका,चलो एक गीत लिखते हैं

प्रभु चरणों में नमन लिखूँ,मातु पिता वंदन लिखूँ, त्याग,समर्पण प्रेम लिखूँ,या वो नया आवास लिखूँ...
दरवाजे पर टिकी निगाहें, वो वृद्धाश्रम में रहते हैं,
भीगे नयनों को स्याही बना ,चलो एक गीत लिखते हैं
नेह निमंत्रण ....

पिंजरे में कैद पंछी लिखूँ,या बेड़ियों में जकड़ी लिखूँ,
नभ की स्वच्छंद उड़ान लिखूँ, नारी का उत्थान लिखूँ...
उस वेदना को कैसे लिखूँ,जो अपने ही छला करते हैं,
मर्यादा की मसि बनाकर ,चलो एक गीत लिखते हैं ।
नेह निमंत्रण ....

चराचर जगत का शोर लिखूँ,या अंतस का मैं मौन लिखूँ,
लिप्त में निर्लिप्त भाव लिखूँ ,मोह में नया वैराग्य लिखूँ,
स्वयं से स्वयं की पहचान का,मार्ग नया चुनते हैं,
अंतःकरण की शुद्धि से ,चलो एक गीत लिखते हैं ।
नेह निमंत्रण ....

रवि किरणों का प्रातः लिखूँ,धुंध से धूमिल गगन लिखूँ,
अविरल अविरामी लिखूँ,या प्रदूषित नदिया नाला लिखूँ,
शुद्ध हवा को तरसे शब्द ,कैसा फल हम भुगतते हैं,
अपनी विनाश लीला का ,चलो एक गीत लिखते हैं।
नेह निमंत्रण ....


Thursday, November 7, 2019




चुभता प्रश्न


आध्यात्मिक गुरु के
प्रवचन का माहौल था ।
मोक्ष ,मुक्ति जैसे गूढ़ विषयों
पर  चर्चाओं का दौर था ।
जीवन में आनंद के
कुछ गुर सिखा रहे थे ।
संभ्रांत लोगो का जमावड़ा
माहौल को गंभीर बना रहा था ।
तयशुदा  लोग तयशुदा प्रश्न
पूछ रहे थे ।
उनके गूढ़ जवाब ,कुछ समझ में,
तो कुछ समझ से परे थे ।
हमने भी
....…एक सरल सा प्रश्न  उनसे पूछ लिया
अगर आपका पाठ और विधि
इतनी महान
तो इस पर इतना भारी शुल्क क्यों?
क्या इसी से देश विदेश मे
आश्रम बनवाते है !
या पाँच सितारा होटल की
सुविधा अपनी कुटिया में पाते हैं!
ये ज्ञान आम जनता तक
 मुफ्त  में   बांटिए
समाज के हर तबके तक पहुँचा
दूषित मन को शुद्ध  करिये।
...ऐसे प्रश्न की उम्मीद
शायद किसी को नहीं होगी
माहौल मे सन्नाटा छा गया
सब मुझको ताक रहे थे,
वो नजरों से वार कर रहे थे.
प्रश्न  बहुत ही सीधा था,
पर जवाब उनके लिए टेढ़ा था...
 चुभता प्रश्न था  और ।
तीर निशाने पर लगा था ।

Tuesday, November 5, 2019

*चार सौ बीस

संख्याओं का मुहावरों में क्या खूब प्रयोग है ,
कहीं चार सौ बीसी ,कहीं नौ दो ग्यारह योग है।
चार सौ बीसी का चलता क्या फर्जीवाड़ा है ,
अधिकार छीन दूसरों का,करें अपना वारा न्यारा है।
कहां से शुरू कर , चारसौ बीसी गिनाए
जिधर नजर  दौड़ाई सब  लिप्त नजर आए।
शिक्षा के लिए पोशाक,पुस्तकें सरकार भिजवाए ,
छात्रवृत्ति ,मिड डे मील की सुविधा का लाभ दिलाएं
 फर्जी वाड़ा का खेल  बड़ा निराला होता है
खाली पाठशाला,छात्र का पंजीकरण वहाँ होता है ।
राशन की दुकानों में चलता फर्जीवाड़ा है
फर्जी संस्थाओं के नाम पर करोड़ों का हवाला है।
चालक लाइसेंस बनाने में दलालों का हाथ है
चार सौ बीसी से कचहरी में सबूतों से छेड़छाड़ है ।
कहीं चार सौ बीसी  से सरकारें बनती गिरती हैं
कहीं नेताओं के कारनामों की फेहरिस्त लंबी होती है।
 नई-नई योजनाओं के नाम पर चार सौ बीसी है
भ्रम फैलाते विज्ञापन करते  मुख अंदर बत्तीसी है ।
चार सौ बीसी का इतिहास बड़ा पुराना है
कहीं इतराना  ,कहीं गवांना तो कहीं नजराना है ।
भोली भाली शक्लों पर कुछ लिखा नहीं होता,
जितना बड़ा नाम उतना ही बड़ा खेल होता है।
कोई माल्या ,नीरव बन विदेश  घूमते हैं
आशाराम ,रामरहीम जेलों  में सड़ते हैं।
कब तक  ये चार सौ बीसी चलती रहेगी
दिल दुखा दूसरों का तिजोरी भरती रहेगी ।
अन्तर्मन की आवाज कब सुन पाओगे
 सतकर्मों के अलावा साथ क्या ले जाओगे
बाज आओ चार सौ बीसी से
वक़्त की चाल बड़ी  बेरहम होती है
 नीयत सुधार कर जीवन जीना होगा खुशी से ।
©anita_sudhir
**गीत**

तुम्हें भाव अपने दिखाना न आया,
कभी प्यार के गीत गाना न आया।

तुम्हें एक पाती कभी जो लिखी थी,
मुलाकात की बात उसमें कही थी,
कि दस्तूर मुझको निभाना न आया
तुम्हीं से कहूँ क्या बताना न आया ।
कभी प्यार के गीत ...

छिपाते रहे राज हम आपसे जो,
शरारत निगाहें कि करने लगी थीं
नजर से हमें क्यों छुपाना न आया।
कभी पास अपने बुलाना न आया
कभी प्यार के गीत ...

नजर जो उठी आपकी इस तरह से ।
जमाने की' बातें सताने  लगी  थीं 
 बसायें जहां हम धवल चाँदनी में ,
सपन क्यों हमें ये सजाना न आया ।।
कभी प्यार के गीत ...

कहानी हमारी अधूरी रही  थी,
तड़प आज भी वो सताती रही है,
उलझती रही डोर मन की सदा जो ,
अहम को हमें क्यों मिटाना न आया ।
कभी प्यार के गीत ...
©anita_sudhir

Sunday, November 3, 2019

यात्रा  वृतांत
गंगोत्री से गंगासागर

अपनी यात्रा का वृतांत सुनाती हूँ
अविरल,अविराम चलती जाती हूँ,
कहीं जन्मती ,कहीं जा  समाती
मोक्षदायिनी गंगा कहलाती हूँ ।

पूर्वज भागीरथ के, भस्म शाप से
तपस्या से लाये,मुक्त कराने पाप से ,
शंकर की जटाओं से उतरी धरा पर
गंगोत्री हिमनद से चली मैदानों पर ।

भागीरथी बन गोमुख से निकली ,
कई पथगामी यात्रा में मिलते रहे,
ऊंचे नीचे पथरीले रास्तों में मिलन
मेरे सफर को सुहाना करते रहे।

धौली,अलकनंदा मिलीं विष्णुप्रयाग में
नंदाकिनी,अलकनन्दा से नंदप्रयाग में
चलते जा मिली पिंडर से कर्णप्रयाग में
मन्दाकिनी देख रही रास्ता रुद्रप्रयाग में।

 ऋषिकेश के पहले देवप्रयाग में
अलकनंदा भागीरथी का संगम हुआ ,
पवित्र पावनी बनी पंचप्रयाग में
ये मनोरम दृश्य बड़ा विहंगम हुआ ।

गढ़मुक्तेश्वर ,कानपुर हो पहुंची प्रयाग
यमुना सरस्वती से मिल जगे मेरे भाग ।
वक्र रूप लिये जा पहुंची काशी
मिर्जापुर पटना से हुई पाकुर वासी।

सोन ,गंडक ,घाघरा कोसी सहगामिनी रहीं
भागलपुर से दक्षिणीमुख पथगामिनी रही ,
मुर्शिदाबाद में बंटे,भागीरथी और पद्मा
देश बांगला अविरल बह चली   पद्मा ।

हुगली तक मैं भागीरथी रही
मुहाने तक हुगली नदी कहलाई।
सुंदरबन डेल्टा,बंगाल की खाड़ी में समाई
कपिल मुनि के दर्शन करती
हिंदुओ का पवित्र तीर्थ गंगासागर कहलाई।

पूरा हुआ यात्रा वृत्तांत,एक बात समझ न आई,
अपने पाप धोते रहे,मुझे मैला करते रहे ,
करोड़ों रुपयों खर्च कर भी ,सफाई अभी न हो पाई
जीवनदायिनी गंगा माँ हूँ ,सबका जीवन हरषाई ।
©anita_sudhir



आज के ज्वलंत विषय और समस्या पर ..

 दोहा छन्द  गीतिका
विषय    प्रदूषण
****
बीत गया इस वर्ष का,दीपों का त्यौहार।
वायु प्रदूषण बढ़ रहा ,जन मानस बीमार ।।

दोष पराली पर लगे ,कारण सँग कुछ और।
जड़ तक पहुँचे ही नहीं ,कैसे हो उपचार ।।

बिन मानक क्यों चल रहे ,ढाबे अरु उद्योग ।
सँख्या वाहन की बढ़ी ,इस पर करो विचार।।

कचरे के पहाड़ खड़े ,सुलगे उसमें आग ।
कागज पर बनते नियम ,सरकारें लाचार ।।

विद्यालय बँद हो गये  ,लगा आपातकाल ।
दूषित वातावरण में ,      देश के कर्णधार ।।

व्यथा यही प्रतिवर्ष की ,मनुज हुआ बेहाल।
सुधरे जब पर्यावरण ,तब सुखमय संसार ।।

Saturday, November 2, 2019

हमारे त्यौहार और रीति रिवाज में एक सार्थक संदेश है ।आवश्यकता है इसके मूल भाव को समझने की ,ना कि अंधविश्वास में पड़ने की।
छठ का यही सार है


जीवनदायिनी नदी को पूजने का संदेश
धर्म ही नहीं ,जड़ों से जुड़ने का संदेश
उगते और डूबते सूरज को अर्घ्य दे
सांस्कृतिक विरासत,समानता का संदेश
देते है ,रीति रिवाज और त्यौहार विशेष

Thursday, October 31, 2019

लघुकथा 
रंगमंच
**
सुनते सुनते थक गया हूं कि दुनिया रंगमंच है और तू किरदार!
 मैं ही हमेशा क्यों किरदार बनूं !
अब नहीं जीना मुझे ये जीवन.
मेरी डोर  सदैव किसी के हाथ में क्यों रहे ...
कहते हुए बड़ी तेज गुस्से में चिल्लाया था "तन "
जी हाँ मेरा अपना " तन "
आज  से मैं रंगमंच हूँ...
यदि मैं रंगमंच तो फिर किरदार कौन ?
अकुलाहट भरे मन  ने कोने से दबी आवाज लगाई, अब मैं किरदार हूँ,
तुम किरदार बन मनमानी करते रहे और पतन की ओर जा रहे हो !
मुझे तुम्हारे इस तन के रंगमंच पर  अपना किरदार  निभाना है और अभिनय को वास्तविक रूप देना है।
बाहर की आवाजें कैमरा  लाइट साउंड कट बहुत सुन चुके।
कुर्सियां खाली पड़ती जा रहीं हैं।
अब अन्तर्मन के लाइट और साउंड को सुन अभिनय करना है ।
नेपथ्य से नई आवाजें आने लगी हैं..

अनिता सुधीर

Friday, October 25, 2019


अकेला दीपक
***
अकेले दीपक की टिमटिमाती लौ
देख अंधियारा मुस्करा ,ये कह उठा ,
सामर्थ्य कहाँ बची अब तुझमें
और मुझे मिटाने का ख्वाब सजा रहा।
रंग बिरंगी झालरों की रौनक में
तेरा वजूद गौण हो गया है ।
गढ़ता रहा जो कुम्हार ताउम्र तुम्हें
वो अब मौन हो गया है ।
दीपक भी हँस के बोला
मेरी सामर्थ्य का भान नहीं है तुम्हें,
मेरे वजूद की बात करते हो
तेरा वजूद मेरे ही तले है
मैं अकेला सामर्थ्य वान हूँ
तुम्हें कैद करने को ,
तमस मिटा करता हूँ उजास
अकेले दीप से दीप जलते रहेंगे
और तुम यूँ ही कैद में तड़पते रहोगे ।

अनिता सुधीर







Thursday, October 24, 2019


गीत 
आधार  हरिगीतिका छन्द 
विधान   28  मात्रा
 गागालगा गागालगा गागालगा गागालगा
**

सद्भावना अरु प्रेम से निस दिन यहाँ त्यौहार हो।।
इक दूसरे की भावना का अब यहाँ  सत्कार हो।

अब भाव की अभिव्यक्ति का,ये सिलसिला है चल पड़ा,
रचते रहें ये गीत मधुरम छन्द से जो हो जड़ा ।
आशीष दो माँ शारदे बस भाव नित ओंकार हो ,
इक दूसरे की भावना का अब यहाँ  सत्कार हो।
सद्भावना...

खबरें परोसी जा रही, जो झूठ में लिपटी मिले,
इन्सान ऐसा कौन है इस घाव को जो अब सिले।
सच लिख सके जो अब सदा ऐसा नया अखबार हो।।
इक दूसरे की भावना का अब यहाँ  सत्कार हो।
सद्भावना...

बातें निरर्थक हो रहीं ,इसमें छिपा क्या राज है,
अपशब्द कहने का सभी को अब नया अंदाज है।
सम्मान करना युगपुरुष का अब सदा आचार हो ,
इक दूसरे की भावना का अब यहाँ  सत्कार हो।
सद्भावना...

मद के नशे में चूर जो,गाथा उन्हीं की क्यों कहे ,
वंदन चरण का क्यों करें अपमान हम क्यों कर सहें।
ये लेखनी सच लिख सके ,जलते वही अँगार हो ,
इक दूसरे की भावना का अब यहाँ  सत्कार हो।
सद्भावना...

स्वरचित
अनिता सुधीर 

Tuesday, October 22, 2019



दर्पण  को आईना दिखाने का प्रयास किया है

    दर्पण  #mirror
*********
दर्पण, तू लोगों को
आईना दिखाता है
बड़ा अभिमान है  तुम्हें
अपने  पर ,कि
तू  सच दिखाता है।
आज तुम्हे  दर्पण,
दर्पण दिखाते हैं!
क्या अस्तित्व तुम्हारा टूट
बिखर नहीं जाएगा
जब तू उजाले का संग
 नहीं पाएगा
माना तू माध्यम आत्मदर्शन का
पर आत्मबोध तू कैसे करा पाएगा
बिंब जो दिखाता है
वह आभासी और पीछे बनाता है
दायें  को बायें
करना तेरी फितरत है
और फिर तू इतराता  है
 कि तू सच बताता है ।
माना तुम हमारे बड़े काम के ,
समतल हो या वक्र लिए
पर प्रकाश पुंज के बिना
तेरा कोई अस्तित्व नहीं ।
दर्पण को दर्पण दिखलाना
मन्तव्य  नहीं,
लक्ष्य है
आत्मशक्ति के प्रकाशपुंज
से  गंतव्य तक जाना ।

अनिता सुधीर

Monday, October 21, 2019

औलाद 


समाज में व्यापत बुराईयों पर किसे दोष दूँ! जब अपनी ही औलाद  सही मार्ग का अनुसरण न करें और संस्कार हीन हो ...
ऐसे हर बिगड़े  बेटे और बेटियों की माँ  का आत्ममंथन…
****
बेटे तेरे कृत्यों पर  मैं  शर्मिन्दा हूँ
कोख शर्मसार हुई , क्यों जिन्दा हूँ ।

रब से की थी असंख्य दुआएं,
प्रभु से की मंगलकामनाएं ।
पग पग पर आँचल फैलाये
तुम पर कोई आंच न आये ।

लाड़ प्यार संग नैतिकता 
का तुमको पाठ पढ़ाया  था ।
कहाँ हो गयी चूक हमसे,जो
तुमने गलत कदम बढ़ाया था ।

लाड़ प्यार के अतिरेक में
तुम बिगड़ते  चले गए,या 
तुम्हारी गलतियों को हम
 नजरअंदाज करते गए ।

कहाँ तुम कमजोर पड़ गए!
क्यों तुम मजबूर हो गए 
एक नेक  भले  इंसान से  
तुम  कैसे हैवान बन गए ।

हैवानियत भी आज शरमा रही
तुम संग स्वयं से घृणा हो रही
मेरा दूध आज लजा रहा ,
दूसरे को क्या दोष दे ,जब
अपना ही सिक्का खोटा हो रहा ।

जब मासूमों से दरिन्दगी करते हो 
उनमें अपनी माँ बहने नहीं देख पाते हो।
गरीबों की चीखें सुन नहीं पाते 
बददुआयों से तिजोरियाँ भरते हो ।
और भी न जाने क्या क्या 
तुम अपराध किया करते हो ।

मेरे बच्चों
मत करो  शर्मिन्दा मुझे
अभी समय है चेत जाओ
अपराधों की सजा भुगत 
पश्चाताप कर सुधर जाओ।

नेक रास्ते पर कदम बढ़ा ,
दूध का कर्ज चुका जाओ ।
देश का भविष्य हो तुम 
समाज  में नई चेतना जगा जाओ ।

स्वरचित
अनिता सुधीर

Sunday, October 20, 2019


विदाई
***
सूने पार्क में
कोने के चबूतरे पर बैठी
यादों के बियाबान जंगल में
विचरण करती हुई..
तभी पीले पत्तों का शाख से विदा हो कर
स्पर्श कर जाना ,
निःशब्द, स्तब्ध कर गया मुझे ।
अंकुरण नई कोपलों का ,
हरीतिमा लिए पत्तियों में ऊर्जा का भंडार ,
जीवन भर का अथक प्रयास,
और अब  इनकी विदाई की बेला।
कितने ही दृश्य कौंध गये....
माँ की  नन्हीं गुड़िया की
घर से छात्रावास तक की विदाई
अपने जड़ों से दूर जाने की विदाई
एक आँगन से दूसरे आँगन में रोपने की विदाई
पत्नी ,बहू माँ रूप में जीवन का तप..
समय  के चक्र में वही क्रम ,वही विदाई
एक एक कर सब विदा लेते हुए....
वही नम आँखे ....
जीवन के  लंबे सफर में
उम्र के इस ढलान पर
काश मैं भी इन पत्तों सी विदाई ले लेती...
साँसों की डोर में..
निरर्थक  बंधी हुई ..
अंतिम विदाई ले पाती..
तभी एक मैले कुचैले कपडे में
एक अबोध बालिका का रुदन
विचलित कर गया ...
अभी रोकनी होगी अपनी अनंत 
यात्रा की कामना ..
और  सार्थक करनी होगी
अपनी अंतिम विदाई ...

Saturday, October 19, 2019

**बचपन**

दादी बाबा संग नहीं
भाई बहन का चलन नहीं
नाना नानी दूर हैं
और बच्चे...
एकाकी बचपन को मजबूर हैं ।
भौतिक सुविधाओं की होड़ लगी
आगे बढ़ने  की दौड़ है
अधिकार क्षेत्र बदल रहे
कोई  कम क्यों रहे
मम्मी पापा कमाते हैं
क्रेच छोड़ने जाते हैं
शाम को थक कर आते हैं
संग समस्या लाते हैं
बच्चों  खातिर समय नहीं
मोबाइल , गेम थमाते है
बच्चों के लिये कमाते हैं
और बच्चे ...
बचपन खोते जाते हैं ।
आबोहवा अब शुद्ध नहीं
सड़कों पर भीड़ बड़ी
मैदान  खेल के लुप्त हुए
बस्ते का बोझ बढ़ता गया
कैद हो गये चारदीवारी में
न दोस्तों का संग  मिला
बच्चों का ....
बचपन खोता जाता है
बच्चा समय से पहले  ही
बड़ा होता जाता है।
याद करें
अपने बचपन के दिन
दादी के  वो लाड़ के दिन
भाई बहनों संग मस्ती के दिन
दोस्तों संग वो खेल खिलौने के दिन
क्या ऐसा बचपन अब बच्चे पाते हैं
बच्चे ....
अपना बचपन खोते जाते हैं
आओ हम बच्चों का बचपन लौटाएं
स्वयं उनके संग बच्चे बन  जायें
वो बेफिक्री के दिन लौटा दें
बच्चों का बचपन लौटा दें।

अनिता सुधीर

Friday, October 18, 2019




अशुद्ध ....

लुप्त होता शिष्टाचार ..
अशुद्ध आचार विचार ..
फैलता भ्रष्टाचार ...
मिथ्या प्रचार....
चहुँ  दिस अंधियार...
मनुज लाचार...
क्या है इसका उपचार..
क्या है इसका समाधान..
अशुद्ध हवा ..
अशुद्ध दवा ..
अशुद्ध भोज्य पदार्थ........
निहित स्वार्थ....
ये मिलावटखोर....
इनके हृदय कठोर..
आतंकवादियों से अधिक खतरनाक
इरादे नापाक .....
करते कारनामे खौफनाक....
अपनों  संग ही करें मजाक ....
बेच चुके जमीर ...
मिलावट दूध खोया पनीर..
भोज्य पदार्थ को अशुद्ध कर
बनना चाहते हैं अमीर ....
समय की मार से डरो ..
अब तो अपने कर्म शुद्ध करो..
सोचो यदि  तुम्हारा परिवार ....
होगा इस अशुद्धता का शिकार...
भयानक पड़ेगा बीमार ...
क्या होगा तब सोचो ...
©anita_sudhir

Thursday, October 17, 2019


अर्धांगिनी
छंदमुक्त
**
माथे पर बिंदिया की चमक
हाथों मे कँगने की खनखन,
मेहंदी की खुशबू रची बसी
माँग में सिंदूर की लाली सजा
#सुहाग का जोड़ा पहन
पैरों मे महावर लगा
अग्नि को साक्षी मान
बंधी सात वचनों मे
बनी में तुम्हारी #सुहागन
मन में उमंग लिये
तुम्हारे संग चली,
छोड़ के अपना घर अँगना।
    हाथों की छाप लगा द्वारे
आँखो मे नए सपने सजाए
तुम संग आई ,तुम्हारे घर सजना ।
सामाजिक बंधन रीति रिवाज़ों में
तुम्हारी जीवनसाथी ,तुम्हारी अर्धांगिनी ।
अर्धागिनी.....अर्थ   क्या....
अपना घर छोड़ के आने से
तुम्हारे घर  तक आने का सफर 
बन गया हमारा घर...
मेरे  और तुम्हारे रिश्ते नाते
अब  हो गए  हमारे रिश्ते,
मेरे तुम्हारे सुख दुख ,मान सम्मान
अब  सब हमारे हो गए ।
एक दूसरे के गुण दोषो को
आत्मसात कर
मन का मन से  मिलन कर
मैं और तुम एकाकार  हो गए ।
जीवन के हर मोड़ पर  
एक दूसरे के पूरक बन
जीवनसाथी के असली अर्थ  को
बन अर्धांगिनी तुम्हारी जी रहे  हम।
ये चांद  सदा साक्षी रहा
हमारे खूबसूरत मिलन का
सुहाग की सुख समृद्धि रहे
बस यही है मंगलकामना ।
अनिता सुधीर


Wednesday, October 16, 2019





हूँ मैं

बिखरे अल्फाजों की कहानी हूँ मैं
टूटे हुऐ ख्वाबों की रवानी हूँ मैं।

शौक नये पालने की फितरत उनकी
शराब मयखाने  की पुरानी हूँ मैं ।

हर्फ दर हर्फ वो ताउम्र लिखते रहे
अनकहे जज्बातों की जुबानी हूँ मैं।

तन्हाईयाँ  मुहब्बत में साथ रहीं
इंतजार की लंबी कहानी हूँ मैं।

राख चिट्ठियों की बन्द डिब्बियों में
बीते हुए लम्हों की जुबानी हूँ मैं।

परछाइयाँ  तैरती रहीं रात भर यूँ
इन नयनों का बहता पानी हूँ मैं ।

मुश्किलों में मुस्कराना सीखा जबसे
अपनी जिंदगी की जिंदगानी हूँ मैं ।

मशालों को थामे रहा करती थी ,
अब गुजरे जमाने की निशानी हूँ मैं ।

बेफिक्री में लम्हें गुजारा करती हूँ
आज के नारी की कहानी हूँ मैं ।

Tuesday, October 15, 2019




हूँ मैं

बिखरे अल्फाजों की कहानी हूँ मैं
टूटे हुऐ ख्वाबों की रवानी हूँ मैं।

शौक नये पालने की फितरत उनकी
शराब मयखाने  की पुरानी हूँ मैं ।

हर्फ दर हर्फ वो ताउम्र लिखते रहे
अनकहे जज्बातों की जुबानी हूँ मैं।

तन्हाईयाँ  मुहब्बत में साथ रहीं
इंतजार की लंबी कहानी हूँ मैं।

राख चिट्ठियों की बन्द डिब्बियों में
बीते हुए लम्हों की जुबानी हूँ मैं।

परछाइयाँ  तैरती रहीं रात भर यूँ
इन नयनों का बहता पानी हूँ मैं ।

मुश्किलों में मुस्कराना सीखा जबसे
अपनी जिंदगी की जिंदगानी हूँ मैं ।

मशालों को थामे रहा करती थी ,
अब गुजरे जमाने की निशानी हूँ मैं ।

बेफिक्री में लम्हें गुजारा करती हूँ
आज के नारी की कहानी हूँ मैं ।

Monday, October 14, 2019

प्रपंच

***
मूल अर्थ लुप्त  हुआ
नकरात्मकता का सृजन हुआ
नई  परिभाषा  रच डाली
प्रपंच  का  प्रपंच  हुआ ।
पंच का मूल अर्थ संसार
"प्र"  ,पंच को देता विस्तार
क्षिति ,जल,पावक ,गगन समीर
पांच तत्व का ये संसार
और पंचतत्व की काया है ।
"प्र" लगे जब सृष्टि  में,अर्थ
अद्भुत अनंत विस्तार हुआ,
नश्वर काया मे प्र  जुड़ कर
भौतिकता का विस्तार करे
अधिकता इसकी ,जीवन
का जंजाल और झमेला है
स्वार्थ सिद्धि हेतु  लोग
छल  का सहारा ले 
नित नए प्रपंच रचते हैं
अनर्गल बातों का दुनिया
में प्रचार किये  फिरते  हैं  ।
प्रपंच  मूल संसार नहीं
प्रपंच माया लोक हुआ
मूल अर्थ न विस्मृत कर
प्र  को और विस्तृत कर ।


Sunday, October 13, 2019



शरद पूर्णिमा विशेष
1)
दोहा
***
गहन तिमिर अंतस छटे,धवल प्रबल हो गात।
अमृत की बरसात हो ,शरद चाँदनी रात ।।
**
2)
**
क्षणिका

शरद पूनम की रात में
अमृत बरसता रहा ,
मानसिक प्रवृतियों के द्वंद में
कुविचारों के हाथ
लग गया अमृत ,
वो  अमर होती जा रहीं ।
**
3)
छंदमुक्त
***
उतरा है फलक से चाँद जो मेरे अंगना
तारों की बारात लेके आओ सजना ,
पूनों की चाँदनी लायी ये पैगाम है
अपनी मुहब्बतों पे तेरा ही नाम है।


अनिता सुधीर

Saturday, October 12, 2019

प्रेम के विभिन्न रूप ...

शाश्वत भाव लिये  प्रेम कण कण में समाया हुआ है।अपरिमित ,अपरिभाषित असीमित प्रेम की अनुभूति और  सौंदर्य अद्वितीय और विलक्षण है ।
कभी वात्सल्य में ,तो कभी पिता की डांट में ,कभी गुरु के अनुशासन में मुखर हो उठता  है ये प्रेम ।तो कभी खामोश रह कर त्याग , बलिदान  और सेवा में दिखाई पड़ता है ।
प्रेम के विभिन्न आयामों को एक साथ पिरोया है
****
दोहा छन्द  के माध्यम से
****

सूना है सब प्रेम बिन, कैसे ये समझाय।
त्याग भाव हो प्रेम में ,प्रेम अमर हो जाय ।।

आदर जो हो प्रेम में,सबका मान बढ़ाय।
बंधन रिश्तों में  रहे ,जीवन सफल बनाय।।

प्रेम रंग से जो रँगे ,मन पावन हो  जाय ।
भक्ति भाव हो  प्रेम में,पूजा ये कहलाय ।।

मात पिता के प्रेम सा ,दूजा न कोइ प्यार।
साथ गुरु का प्रेम हो, जीवन धन्य अपार।।

बाँधे बंधन नेह के ,पावन  रेशम डोर।
भ्रात बहन के प्रेम में,भीगे मन का कोर।।

रक्षा बंधन पर्व का ,करें सार्थक अर्थ ।
प्रकृति से जो प्रेम करें,होंगें तभी समर्थ।।

प्रेम दिलो में जो बसे ,  नफरत कैसे आय।
सबकी सोच अलग रही, बीता दो बिसराय ।।

हिंदी भाषा आन  है, हिन्दी भाषा शान।
भाषा से अनुराग हो ,रखिये इसका मान।।

मानव और प्रकृति का,रिश्ता है अनमोल।
देव रुप में पूज्य ये ,समझ प्रेम का मोल ।।

अद्भुत सारे प्रेम हैं , देश बड़ा नहि कोय।
नाम देश के मर मिटें, बिरले  ऐसे होय ।।

अनिता सुधीर


माँ

कोई शब्द नहीं मेरे पास
जो तुमको बयान करे माँ ।
लेखनी की बिसात नही
जो तुम्हें परिभाषित करे माँ।
तुम असीमित, अपरिमित,
रोम रोम मे समाई हो माँ।
जीवन की कड़ी धूप में
शीतल छाँव किये रही माँ।
प्यार ,अनुशासन से जीवन
परीक्षा के पाठ पढ़ाई माँ ।
आदर्श प्रस्तुत कर रिश्तों
का महत्व बताया तुमने माँ ।
त्याग और समर्पण की मिसाल
बनी ,मेरा व्यक्तित्व रच गयीं माँ।
तुम्हारा ही अनुसरण करते रहे
माँ के गुण मुझे प्रदान कर गईं माँ।
तुम कभी लाड़ नहीं जताई माँ
और मैं कभी अपने को
व्यक्त नहीं कर पाई माँ
तुम्हारा घर से कभी जाना
बड़ा  अखरता था माँ ,
इसीलिए मैं बच्चों को छोड़
बाहर  नहीं  जा पाई माँ।
आज उम्र के इस पड़ाव
पर भी आप ही सहारा बनती हो माँ।
परेशानियों को अभी भी
तुरंत हल करती हो माँ ।
तुम संबल बन साथ रहो
इतनी सी चाहत है माँ।
तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब बनूँ
ये आशीर्वाद दे दो मेरी माँ ।

Thursday, October 10, 2019

रुपया
***
सुनो  रुपैया..  तुम हो बड़े काम के भैया

कई रंगों मे रंगे हो भैया  तुम हो सबके खिवैया
पास अगर तुम होते हो पार लगाते जीवन नैया

तुम बिन  इस भंवर में हिचकोले खाती है नैया
मिले सम्मान जगत में पास में होय जब रुपैया।

विवश हो चश्मे से देखते,हिंसा में काम आते तुम
गाँधी के सिद्धांत रौंद,दबाते सच को तुम रुपैया।

बिक गया इंसान ,ईमान रिश्ता धर्म हो गया
रिश्तों में कत्लेआम देखा,कारण तुम थे रुपैया ।

अरबों की भूख में ,देश बेच रखे महलों में रुपैया
दो रोटी की भूख जिसे,नसीब नहीं एक मडैया ।

जब घर आते सैंया पत्नी झांके ओट किवडिया
बालम ले आये  रुपैया पत्नी का श्रृंगार रुपैया ।।

बच्चों का मनुहार रुपैया, बूढ़ों का विश्वास रुपैया
सबके बड़े काम का  रुपैया।।

कोठों पर नाचते देखा जिनके पास न था रुपैया
जिस्म को नोचते देखा जिनके पास था रुपैया ।।

फांसी के फंदे पर लटके,उनके पास नहीं रुपैया
भिखारी मर गया बाहर ,मंदिर में अपार रुपैया।।

सद्बुद्धि देना प्रभु ,महत्व तुम्हारा समझें भैया।।
आवश्यक जीवन में रुपैया ,पर निश्चित है भैया
सब कुछ होता नहीं रुपैया ।।

एक अधिक सांस न मोल  ले पाये रुपैया
एक अधिक सांस न मोल  ले पाये रुपैया।।
सब कुछ नहीं होता रुपैया  ।।
अशांत मन ,असहनीय वेदना लिये
यायावर सा भटकता रहा ,
संदेशों में कहे गूढ़ अर्थ को
समझने की कोशिशें करता रहा ।
प्रतिवर्ष  दम्भी रावण का दहन,
रावण का समाज में प्रतिनिधित्व
राम कौन ,जो मुझको मारे !ये प्रश्न पूछ
दस शीश रख अट्ठहास करना ,
समाज रावण और भेड़ियों से भरा
ये संदेश विचलित करते रहे ।
एक ज्वलंत प्रश्न कौंधा
क्या लिखने वालों ने अनुसरण किया!
या संदेश अग्रसारित कर
कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली ।
.....दो पुतलों को जलते देखा  जब
भीड़ के चेहरे का उत्साह,
वीडियो बनाते इन पलों को कैद करते लोग
मेला घूमते लोगों को देख
मन शांत हो नाच उठा ।
ये भीड़ प्रतिदिन
गरीबी ,बेरोजगारी ,अशिक्षा
अत्याचार और न जाने कितने
ही रावण से युद्व करती है
जीवन की भागदौड़ में
तिल तिल कर मरती है ।
त्यौहार संस्कृति है हमारी
त्यौहार से मिलती खुशियां सारी
प्रत्येक वर्ष रावण का दहन
देख अपने दुख ,कष्ट भूल जाते हैं
रावण कुम्भकरण प्रतिवर्ष जल कर
अपनी संस्कृति से जोड़े रहते हैं
और राम बनने के प्रयास जारी ....

Wednesday, October 9, 2019

आरे में आरी
वृक्ष की आवाज बनने का प्रयास
दोहावली  के माध्यम से

हमें काटते जा रहे  ,पारा हुआ पचास।
नित्य नई परियोजना, क्यों भोगें हम त्रास।।

धरती बंजर हो रही ,बचा न खग का ठौर।
बढ़ा प्रदूषण रोग दे ,करिये इस पर  गौर ।।

भोजन का निर्माण कर ,हम करते उपकार।
स्वच्छ प्राण वायु दिये  , जो जीवन आधार ।।

देव रुप में पूज्य हम ,धरती का सिंगार ।
है गुण का भंडार ले औषध की भरमार ।।

संतति हमको मान के ,करिये प्यार दुलार ।
उत्तम खाद पानी से ,लें पालन अधिकार ।।

मानव और प्रकृति का ,रिश्ता है अनमोल
आरे में आरी नहीं ,समझें मेरा  मोल।

Tuesday, October 8, 2019


दशहरा

विजयी भव शुभकामना, करते बारम्बार।
सबके अंदर राम हों ,इस पावन त्यौहार ।।

दम्भी रावण का दहन ,होता है प्रति वर्ष ।
मूल भाव के ज्ञान से ,ही निकले निष्कर्ष ।।

द्वंद राम रावण चले ,उर जो इनका वास ।
अच्छाई की  जीत से  ,होय बुराई नास ।।

भेदी घर के आज भी ,अपनी लंका ढाय।
खायें अपने देश का ,दूजो के गुण गायं।।
©anita_sudhir

Sunday, October 6, 2019





कर्ण नायक या ...

महाभारत युद्ध के पहले  कुंती पांडवों की  रक्षा का वचन लेने जब कर्ण के पास जातीं हैं तो वह कर्ण  की सच्चाई उसे  बता देती हैं । ये जानने के पश्चात कर्ण की  स्थिति को ,कर्ण द्वारा कुंती से पूछे जाने वाले प्रश्नों के माध्यम से व्यक्त किया है...
***
सेवा से  तुम्हारी प्रसन्न हो
ऋषि ने तुम्हें वरदान  दिया
करो जिस देव की आराधना
उसकी संतान का उपहार दिया।
अज्ञानता थी तुम्हारी
तुमने परीक्षण कर डाला
सूर्य पुत्र मैं, गोद में तेरी,
तुमने गंगा में बहा डाला ।
इतनी विवश हो गयी तुम
क्षण भर भी सोचा नहीं,
अपने मान का ध्यान रहा ,
पर मेरा नाम मिटा डाला ।
कवच कुंडल पहना कर
रक्षा का कर्तव्य निभाया
सारथी दंपति ने पाला पोस
मात पिता का फर्ज निभाया ।
सूर्य पुत्र बन जन्मा मैं
सूत पुत्र पहचान बनी
ये गलती रही तुम्हारी , मैंने
जीवन भर विषपान किया।
कौन्तेय से राधेय बना मैं
क्या तुम्हें न ये बैचैन किया!
धमनियों में रक्त क्षत्रिय का
तो भाता कैसे रथ चलाना।
आचार्य द्रोण का तिरस्कार सहा
तो धनुष सीखना था ठाना।
पग पग पर अपमान सहा
क्या तुमको इसका भान रहा !
दीक्षा तो मुझे लेनी थी
झूठ पर मैंने नींव रखी ,
स्वयं को ब्राह्मण बता ,मैं
परशुराम का शिष्य बना ।
बालमन ने कितने आघात सहे
क्या तुमने भी ये वार सहा !
था मैं पांडवों मे जयेष्ठ
हर कला में उनसे श्रेष्ठ,
होता मैं हस्तिनापुर नरेश
क्या मुझे उचित अधिकार मिला
क्या तुम्हें अपराध बोध हुआ!
जब भी चाहा भला किसी का
शापित वचनों का दंश सहा
गुरु और धरती के शाप ने
शस्त्र विहीन ,रथ  विहीन किया।
भरी सभा  द्रौपदी  ने
सूत पुत्र कह अपमान किया
मत्स्य आँख का भेदन कर
अर्जुन ने स्वयंवर जीत लिया ।
मैंने जो अपमान का घूंट पिया
क्या तुमने  कभी विचार किया !
कठिन समय ,जब कोई न था
दुर्योधन ने मुझे मित्र कहा
अंग देश का राजा बन
अर्जुन से द्वंद युद्ध किया ।
मित्रता का धर्म निभाया
दुर्योधन जब भी गलत करे ,
कुटिलता छोड़ कर , उसको
कौशल से लड़ना बतलाया ।
दानवीर नाम सार्थक किया
इंद्र को कवच कुंडल  दान दिया
तुमने भी तो पाँच पुत्रों
का जीवन मुझसे माँग लिया
क्या इसने तुम्हें  व्यथित किया !
आज ,जब अपनी पहचान जान गया
माँ  ,मित्र का धर्म निभाना होगा
मैंने अधर्म का साथ दिया ,
कलंक सदियों तक सहना होगा
अब तक जो मैंने पीड़ा सही
उसका क्या भान हुआ तुमको !
मेरी मृत्यु तक तुम अब
पहचान छुपा मेरी रखना
अपने भाइयों से लड़ने का
अपराध, मुझे क्षमा करना ।
जीवन भर जलता रहा आग में
चरित्र अवश्य मेरा बता देना
खलनायक  क्यों बना मैं
माँ तुम जग को बतला देना ।
©anita_sudhir


Saturday, October 5, 2019

*निःशब्द*

निःशब्द हो जाती हूं
जब विद्वजनों की लेखनी
में खो  जाती  हूँ
और लेखन रस के संसार में
डूब  जाती हूँ ।
कलाकारों की कलाकृतियां
देख साँस थामे
नि:शब्द अपने भाव
प्रकट कर आती हूँ
उन उंगलियों का स्पर्श
कर ,मौन प्रशंसा कर आती हूँ।
निःशब्द परमसत्ता
के रहस्यमयी संसार में हूँ
निःशब्द मन की उड़ान में हूँ।
पर आज
निःशब्द हूँ.....
इतिहास में दफन राज
पर होती निरर्थक बहस
और विचार से ,
बिना समय ,परिस्थिति जाने
उसकी सत्यता से ,
महापुरुषों को अपशब्द कहने से ..
झाड़ू की राजनीति से..
वर्तमान काल पर
सत्यता, ईमानदारी से
बिना भेदभाव के
कौन शब्द दे पायेगा..
कौन इसे परख पायेगा
और भविष्य में फिर
इतिहास दोहराया जायेगा...
अब शब्द देने पड़ेंगे
विचारों की स्वच्छता के लिए
सत्य की कसौटी के लिए ,
देशहित में परिपक्वता के लिए
जन  मस्तिष्क में भरे
जहर को दूर करने के लिए
अब शब्द देने पडेंगे।
वाणी मुखर करनी होगी ।
©anita_sudhir

Friday, October 4, 2019


स्पर्श / सिहरन
हाइकु

प्रथम स्पर्श
तन मे सिहरन
प्रेमानुभूति

नाजुक स्पर्श
नवजात बेटी का
हर्षित मन

हृदय स्पर्शी
बेटी भ्रूण कूड़े में
दुर्गा उत्सव

तन कम्पन
शीत लहर स्पर्श
लाचार वृद्ध

चीखों का स्पर्श
व्यथित होता मन
वेदना तन।।


Thursday, October 3, 2019

मैं  कैसी
**
मैं कैसी
चर्चा का विषय क्यों
हर बार कसौटियों पर
मैं ही परखी जाऊँ
लहूलुहान होती रूह पर
कब तक मरहम लगाऊं
सदियों से चुप रही
कराहती रूह को
थपथपा सुलाती रही
पर अब नहीं ...
जैसी भी  मैं
क्यों दें सबूत
साक्ष्य प्रमाण क्यों
एक एक कृत्य के
गवाह क्यों 
नहीँ चाहिये मुझे
तुम्हारी अदालत से
कोई फैसला
कोई सनद नहीं
कोई प्रमाण पत्र नहीं
स्वयं को बरी करती हूँ.....

        उपवास
         दोहा छन्द
**
औषधि उत्तम है यही ,रखें एक उपवास ।
चित्त शुद्ध मन शांत हो ,रोगों का हो नास ।।

सार्थक है उपवास जो ,समझें इसका मर्म।
खान पान नियमित करें ,पालन करिये धर्म ।।

खुश होते भगवान जो ,रखने से उपवास ।
रहता भिक्षुक वो सुखी, बैठा मंदिर पास ।।

लिये सत्य की धारणा ,करें मौन उपवास ।
चिंतन गाँधी का भरे ,जन जीवन में आस ।।

महत्व है उपवास का ,समझें इसके बोल।
अन्न त्याग के साथ ही , हो विचार अनमोल ।।

Wednesday, October 2, 2019

गांधी
दोहावली


युग निर्माण आप किये,लकुटी था हथियार ।
सत्य अहिंसा पाठ से,आलोकित  संसार।।

लिये सत्य की धारणा ,किया मौन उपवास ।
चिंतन गाँधी का भरे ,जन जीवन में आस ।।

शांति उपासक कर गया ,भारत को आजाद।
राम राज की   स्थापना ,करें आज ये नाद ।।

खादी वस्त्र विचार है,रखिये इसका  मान ।
देशी को अपनाइये ,बापू गाँधी महान ।।

स्वच्छता अभियान हो ,जन जन की पहचान ।
देखे चश्मा बापु का, बदला  हिंदुस्तान ।।

Tuesday, October 1, 2019

तीन बंदर

गांधी जी के
तीन बन्दर
ही तो  अब
बन गया है समाज ।

बुरा मत देखो ,
बुरा मत सुनो
बुरा मत  कहो,
सिखाते आये  गांधी जी ।

आँखे बंद किया अंधा..
अब वो कहाँ देखता बुरा,
घटना का वीडियो बनाता
एक कोने मे खड़ा ।

कान बंद किये बहरा...
सच वो बुरा नहीं सुनता,
किसी की चीत्कारों का
कोई असर नहीँ पड़ता ।

मुँह बंद किये गूँगा
अन्याय सहता
 और सहते देख
बुराई के खिलाफ वो
आवाज बुलन्द नही करता ।

गांधी होते ,
देख द्रवित होते
अपने देश का हाल
सीख उनकी ,
ढाल  ली
सबने स्वयं अनुसार ।

गांधी के चश्मे से
गांधी का भारत देखो,
बुराई  को दूर कर
भारत को स्वच्छ करो ।





Monday, September 30, 2019

माँ दुर्गा के नौ रूप में जीवन के विभिन्न आयाम
***
माँ दुर्गा के नौ रूप है इस जीवन का  आधार
कल्याणकारिणी देवी करतीं जन जन का उद्धार।

शैलपुत्री माता  तुम नव चेतना का संचार करो
ब्रहमचारिणी माता ,अनंत दिव्यता से मन भरो ।

चन्द्रघण्टा मन की अभिव्यक्ति ,इच्छाओं को एकाग्र करो ।
कूष्मांडा प्राणशक्ति तुम   ऊर्जा का भंडार भरो ।

स्कंदमाता ज्ञानदेवी  कर्मपथ पर ले चलो
कात्यायनी माता तुम क्रोध का संहार करो ।

कालरात्रि माता तुम जीवन में शक्ति भरो
महागौरी माँ  सौंदर्य से दैदीप्यमान करो  ।

सिद्धिदात्री माता  जीवन मे पूर्णता प्रदान करो
नवदुर्गे माँ जन जन के जीवन को आलोकित करो ।

आत्मसात कर सके ये अलौकिक रूप तुम्हारे
ऐसी कृपा हम पर करो ,ऐसी कृपा हम पर करो ।


अनिता सुधीर
*दक्षिणा*

'मॉम पंडित जी का पेमेंट कर दो '
सुन कर इस पीढ़ी के श्रीमुख से
संस्कृति कोने में खड़ी कसमसाई थी
सभ्यता दम तोड़ती नजर आई थी ।

मैं घटना की मूक साक्षी बनी
पेमेंट और दक्षिणा में उलझी रही,
आते जाते गडमड करते विचारों को
आज के परिपेक्ष्य में सुलझाती रही।

दक्षिणा का सार्थक अर्थ बताने
 उम्मीद लिए बेटे के पास आई,
पूजन सम्पन्न कराने पर दी जाने
वाली श्रद्धापूर्वक  राशि बताई ।

एकलव्य और आरुणि की कथा सुना
गुरू दक्षिणा का महत्व समझाई ,
ब्राह्मण और गुरु  चरणों में नमन कर
उसे अपनी संस्कृति की दुहाई दे आईं ।

सुनते ही उसके चेहरे पर विद्रूप हँसी नजर आयी
ऐसे गुरु अब कहाँ मिलते मेरी भोली भाली माई ,
अकाट्य तर्कों से वो अपने को सही कहता रहा
मैं स्तब्ध उसे कर्तव्य निभाने को कहती आई ।

न ही वैसे गुरु रहे ,न ही वैसे शिष्य
दक्षिणा देने और लेने की सुपात्रता प्रश्नचिह्न बनी
विक्षिप्त सी मैं दो  कालखंड में भटकती रही,
दक्षिणा के सार्थक अर्थ को सिद्ध करती रही ।

प्रथम गुरू माँ  होने का मैं कर्तव्य  निभा न पाई
अपनी संस्कृति  संस्कार से अगली पीढ़ी को
परिचित करा न पाई
दोष मेरा भी था ,दोष उनका भी है
बदलते जमाने के साथ सभी ने तीव्र रफ्तार पाई।

असफल होने के बावजूद बेटे से अपनी दक्षिणा मांग आयी
तुम्हारे ,धन दौलत सोने चांदी ,मकान से सरोकार नहीं मुझे
बस तू नेक इंसान बन कर जी ले अपनी जिंदगी
इंसानियत रग रग में हो,उससे अपना पेमेंट माँग आयी।
©anita_sudhir

संसद

मैं संसद हूँ... "सत्यमेव जयते" धारण कर,लोकतंत्र की पूजाघर मैं.. संविधान की रक्षा करती,उन्नत भारत की दिनकर मैं.. ईंटो की मात्र इमार...