Tuesday, December 31, 2019




नव वर्ष का  प्रारंभ
गणेश वंदना के साथ

आधार चामर छन्द  23 मात्रा,15 वर्ण
गुरू लघु×7+गुरू
**
रिद्धि सिद्धि साथ ले,गणेश जी पधारिये,
ग्रंथ हाथ में धरे ,विधान को विचारिये।
देव हो विराजमान ,आसनी बिछी हुई,
थाल है सजा हुआ कि भोग तो लगाइये।

प्रार्थना कृपा निधान, कष्ट का निदान हो,
भक्ति भाव हो भरा कि ज्ञान ही प्रधान हो ।
मूल तत्व हो यही समाज में समानता,
हे दयानिधे! दया ,सुकर्म का बखान हो ।

ज्ञान दीजिये प्रभू अहं न शेष हो हिये
त्याग प्रेम रूप रत्न कर्म में भरा  रहे।
नाम आपका सदा विवेक से जपा करें,
आपका कृपालु हस्त शीश पे सदा रहे।


अनिता सुधीर

Monday, December 30, 2019


बीता साल
छन्द मुक्त
***
बीता साल
बीता ,पर
बीतने के लिए नहीं बीता!
चलता रहा ,
लड़खड़ाता  ,गिरता ,संभलता
कभी सही कभी गलत।
पर
ठहरा नहीं
ठिठका नहीं
डरा नहीं !
कभी शून्यता में अटका नहीं।
भटकाव लिए भटका नही
सहता रहा वार
सामने ,कभी पीछे से
रुका नहीं सहमा  नही
बीता साल बस चलता रहा ।
दुश्मन के घर तक गया ।
प्रचंड आंधी चली
तिनका तिनका सब बिखर  गये ।
लड़ता रहा अधिकार के लिए
धारा  से लड़ा
कुछ डरे कुछ डराये।
 बीता साल मंदिर गया
निर्णय लेता रहा।
बीता साल
चलता  रहा ,दौड़ता रहा !
इस  दौड़ने में कुछ धीरे धीरे
सुलगता रहा
और जाते जाते  जलता रहा ।
आने वाला साल
भी चलता रहे ,दौड़ता रहे ,
सड़ा  गला हटाना है
शिखर तक जाना है  ।


अनिता सुधीर








Saturday, December 28, 2019

गीतिका


रीतियाँ नश्वर जगत की यूँ निभाना चाहिए ,
चार दिन की ज़िंदगी का ढंग आना चाहिए ।

राख से पहले यहाँ क्यों हो रहा जीवन धुआँ ,
ध्यान चरणों में सदा प्रभु के लगाना चाहिए ।

देह माटी की बनी अभिमान इस पर क्यों करें ,
मोह  माया से परे जीवन बिताना चाहिए ।

ईश है कारक सदा से ,भाव कारक क्यों रखें ,
कर्म से झोली  भरें अब पुण्य पाना चाहिए ।

पाप करते जा रहे क्यों ,धर्म के धारक बनें ,
कीर्ति की शोभित पताका ही दिखाना चाहिए । 

Thursday, December 26, 2019

सूर्य ग्रहण
दोहा छन्द गीत

उत्कंठा मन में रही ,क्या है इसका राज ।
ग्रहण सूर्य पर क्यों लगे,रहस्य खुलते आज ।।

नील गगन में घूमते,कितने ग्रह चहुँ ओर ।
चक्कर सूरज के लगा,पकड़े रहते  डोर ।।
घूर्णन धरती भी करे, धुरी सूर्य को मान।
चाँद उपग्रह धरनि का,वो भी जाने ज्ञान।।
लिये चाँद को घूमती,करे धरा सब काज,
ग्रहण सूर्य पर क्यों लगे,रहस्य खुलते आज ।।

चाँद धरा सब घूमते ,अपनी अपनी राह।
धरा सूर्य के मध्य में,चाँद दिखाता चाह।।
अवसर जब ऐसा हुआ,होता लुप्त उजास।
घटना ये नभ की रहे ,सदा अमावस मास।।
सूर्य ग्रहण इसको कहें ,गिरी धरा पर गाज ।
ग्रहण सूर्य पर क्यों लगे,रहस्य खुलते आज ।।

बंद द्वार मंदिर हुये, करें स्नान अरु दान ।
आस्था की डुबकी में,भूले नहिं विज्ञान।।
फैली कितनी भ्रांतियां,जानें इसका मर्म।
खगोलीय गति पिंड की,विशेष नहिं है धर्म।
तर्क़ शक्ति से सोच के ,पालन रीति रिवाज ।।
ग्रहण सूर्य पर क्यों लगे,रहस्य खुलते आज ।।

©anita_sudhir

Wednesday, December 25, 2019



दोहावली

भावों का व्यतिरेक है ,नहीं शिल्प का  ज्ञान ।
छन्द सृजन संभव नहीं ,मैं मूरख अंजान।।

जीवन उपवन हो सजा,खिले पुष्प प्रत्येक।
घृणा द्वेष व्यतिरेक हो,प्रेम  बहे अतिरेक ।।

मातु पिता आशीष से,मन हर्षित अतिरेक।
प्रभु चरणों में ध्यान हो,पूर्ण कार्य प्रत्येक।।

बंधन जन्मों का रहे ,निभे प्रणय की रीति।
निष्ठा अरु विश्वास ही ,सफल करे ये नीति।।

प्रणयन कर ये सम्पदा ,हिय में भरा हुलास ।
विद्वजन के सामीप्य में ,मिले ज्ञान का ग्रास।।




Tuesday, December 24, 2019




नई सोच


शीत लहर का  प्रकोप चरम सीमा पर था । शासन के आदेश अनुसार सभी विद्यालय बंद हो गये थे ।बच्चों की छुट्टियाँ थी इतनी ठंड में सभी  काम निबटा  लेकर नीता  रज़ाई  में घुसी ही थी ,कि दरवाज़े  की घंटी बजी ।
इतनी ठंड में  कौन आया ,नीता बड़बड़ाते हुए उठी ।
(दरवाजे पर कालोनी के कुछ बच्चों और लड़कों को देखकर )
नीता - तुम लोग इतनी ठंड में ?
रोहन - आंटी एक रिक्वेस्ट है आपसे ,यदि कोई पुराने गर्म कपड़े ,कम्बल आदि आपके पास हो तो प्लीज़ साफ़ कर के उसे  पैक कर दीजिए ,हम लोग उसे दो तीन दिन में आकर ले जाएँगे ।
नीता - (आश्चर्य से  )तुम लोग इसका क्या करोगे ?
रोहन - (जो इन सबमें सबसे बड़ा  कक्षा  १२ का छात्र था )
आंटी  इतनी ठंड पड़ रही है,कुछ बच्चों को ठिठुरते देखा तो हम सबने ये सोचा कि इनकी  सहायता कैसे करें !
तो हम सभी ने ये तय  किया  कि सबके घर में पुराने  छोटे कपड़े होते ही हैं  वो  इकट्ठा कर इन ज़रूरतमंद लोगों को दे सकते हैं ।उनकी क्रिसमस और नए साल का  गिफ़्ट हो जाएगा  ,ठंडक से आराम और हमारी छुट्टियों का सदुपयोग भीं हो जाएगा ।
नीता - मंत्रमुग्ध सी रोहन की बात सुन कर , बेटा मैं तुम्हारे  विचारों से बहुत प्रभावित हुई हूँ ,क्या तुम लोगों ने अपने घर में बात कर ली है !
रोहन - आंटी पापा को बताया था , वो बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने हमारी पूरी सहायता करने को कहा है ।ये सब  बाँटने में वो हमारे साथ होंगे ।
नीता - (सोचते हुए )धन्य  हैं  रोहन के माता पिता जिन्होंने इतने अच्छे संस्कार दिए । जब आज की पीढ़ी नए साल की पार्टी  में नशे में चूर  हो  डान्स में डूब जाती है तो ये विचार समाज में एक नयी सुबह ले कर आयेगा ,निश्चिन्त हूँ  जब तक ये संवेदनशीलता हमारी सोच में रहेगी हमारी संस्कृति की रक्षा सदैव रहेगी । मुस्कुराते हुए वो गर्म  कपड़े निकालने चल दी थी ::
©anita_sudhir

Monday, December 23, 2019



कुंडलियां

*गजरा**
गजरा ले लो आप ये ,सुनते थे आवाज।
रुके वहाँ कुछ सोच के,छोड़े सारे काज ।।
छोड़े सारे काज,दिखी थी कोमल कन्या ।
मुख मलिन वसन हीन,कहाँ थी इसकी जन्या।।
मन में  उठती पीर....करें  ये जीवन उजरा।
लेकर आया मोल ,.....उन्हीं हाथों से गजरा।।
///

*कंगन **
असली कंगन पहन के ,महिला करती सैर ।
वहाँ लुटेरे मिल गये ....कंगन की नहि खैर ।।
कंगन की नहि खैर ,सभी देखते तमाशा ।
छीना झपटी मार,नहीं स्त्री छोड़ी आशा ।।
निकले मुख से बोल,लिये जाओ !वो नकली।
बनवा लूँगी चार ,बचाये कंगन असली ।।
////

Sunday, December 22, 2019

वृत्त परिधि पर अनगिनत बिंदु
सबकी दिशायें अलग अलग
जीवन परिधि पर
 ऐसे ही अनगिनत लोग
सूक्ष्म कण  मानिंद
 विचार  और राह
सब अलग अलग।
ना लेना एक ना देना दो
 फिर क्यों जंग छिड़ी हुई
मैं सही तुम गलत।
 कोई दो बिंदु  गर
प्रेम केंद मे रख, जुड़े तो
व्यास बन बड़े हो जाये
केंद्रित जो न हुए प्रेम से
कॉर्ड  बन छोटे हो  जायेगे(chord)
एक और एक मिल
क्यों बनते हो शून्य
जिंदगी है जोड़ ,गुना
एक और एक मिल
बन जाओ ग्यारह ।

Saturday, December 21, 2019

गीतिका
****

शरम से निगाहें गड़ी जा रहीं हैं
अभी भी,कली जो लुटी जा रही है।

जलाते रहे जो चमन दूसरों के ,
उन्हीं की खुशी अब जली जा रही है।

रखे हौसला,जब मुसीबत सही थी,
कहानी उसी की लिखी जा रही है।

फसल विष भरी जो उगाते रहे वो
वही भीड़ अब ये बढ़ी जा रही है।

जरा होश में आइये अब सभी तो
यहाँ शाम ये जो ढली जा रही है।

अनिता सुधीर

Thursday, December 19, 2019


कुंडलिया

1) डोली
डोली बेटी की सजी,खुशियां मिली अपार।
 सपने आंखों में लिये ,छोड़ चली घर द्वार।।
 छोड़ चली घर द्वार ,जग की ये रीति न्यारी।
दो कुल की है लाज ,सदा खुश रहना प्यारी ।।
देते  सब आशीष , सुख से भरी हो झोली ।
दृग के भीगे कोर ,उठे जब तेरी डोली।।

2)बिंदी

बिंदी माथे पर सजा ,कर सोलह श्रृंगार ।
पिया तुम्हारी राह ये ,अखियां रही निहार ।।
अखियां रही निहार,तनिक भी चैन न मिलता।
कैसे कटती रात ,विरह में तन ये जलता।।
बढ़ती मन की पीर ,छेड़ती है जब ननदी ।
तुम जीवन आधार ,तुम्हीं से मेरी बिंदी।।

स्वरचित
अनिता सुधीर






Wednesday, December 18, 2019

द्वार द्वार जा रहे    ,बधाई गीत गा रहे ,
वाद्य यंत्र साथ लिए ,दुआ देते जा रहे  ।
कोई कहे किन्नर इन्हें ,कोई कहे वृहन्नला
कोई छक्का कह इन्हें,हँसी क्यों उड़ा रहे ।
न नर न नारी रहे ,सदा ये बेचारे  रहे,
बिना गलती दोष के,अलग प्राणी रहे।
वेदना अथाह सहें ,अपनों से दूर रहें
दुआओं के बदले ये ,तिरस्कार सह रहे ।
शारीरिक दोष है इन्हें,मन से अपंग नही
सोच ले ये समाज ,कहीं वो इनमें तो नहीं।

**
शायर
हृदय की संवेदनाओं को
दिल की भावनाओं को
पल-पल जीते पल-पल मरते ,
कल्पना शक्ति का जामा पहना
शब्दों से कागज पर उकेरते
लहू की स्याही से लिखते..
श्रोताओं  और पाठकों के
दिल के तारों को झंकृत कर
उसी विरह अग्नि  में तड़पाते
नायिका के सौंदर्य रस में डुबाते
शहीदों की गाथा लिख क्रांति और चेतना लाते ,
वही शायर बन पाते ।
भावों की अभिव्यक्ति को बड़ी खूबसूरती से
बह्र ,काफिया और रदीफ़ से सजाते  ,
कभी नज्म कहते ,कभी गजल
उर्दू की मीठी वाणी से कानों में रस घोलते
जुबां से निकले शब्द शायरी में ढलते
वही शायर बन पाते ।
शायर सशरीर रहे ,न रहे
 शायरियां युगों  युगों तक रहतीं
लोगों की जुबां पर चढ़ी
वो ही शायर बन पाता।

Tuesday, December 17, 2019

न्याय

न्याय के मंदिर में

आंखों पर पट्टी बांधे

मैं न्याय की देवी .प्रतीक्षा रत  ...

कब मिलेगा न्याय सबको...

हाथ में तराजू और तलवार लिये

तारीखों पर  तारीख की

आवाजें सुनती रहती हूँ ..

वो चेहरे देख नहीं पाती ,पर

उनकी वेदना समझ पाती हूँ

जो आये होंगे

न्याय की आस में

शायद कुछ गहने गिरवी रख

वकील की फीस चुकाई होगी,

या  फिर थोड़ी सी जमीन बेच

 बेटी के इज्जत की सुनवाई में

बचा  सम्मान  फिर गवाया होगा

और मिलता क्या

एक और तारीख ,

मैं न्याय की देवी प्रतीक्षा रत ....

कब मिलेगा इनको  न्याय...

सुनती हूँ

सच को दफन करने की चीखें

खनकते सिक्कों की आवाजें

वो अट्टहास  झूठी जीत का

फाइलों में कैद  कागज के

फड़फड़ाने की,

पथराई आँखो के मौन

हो चुके शब्दों के कसमसाने की

शब्द भी स्तब्ध रह जाते

सुनाई पड़ती ठक ठक !

कलम  के आवरण से

निकलने की   बैचेनी

सुन लेती हूँ

कब लिखे वो न्याय

मैं न्याय की देवी  प्रतीक्षारत....

महसूस करती हूँ

शायद यहाँ  लोग

काला पहनते होंगे

जो अवशोषित करता होगा

झूठ फरेब  बेईमानी

तभी मंदिर बनता जा रहा

अपराधियों का अड्डा

कब मिलेगा न्याय  और

कैसे मिलेगा न्याय

जब सबूतों को

मार दी  जाती गोली

मंदिर परिसर में

मैं मौन पट्टी बांधे इंतजार में

सबको कब मिलेगा न्याय..

और जग के पालनहार को

कब मिलेगा न्याय .....



©anita_sudhir

Monday, December 16, 2019


 गीतिका (रजनी छन्द )
2122 2122 2122 2
समान्त  आर पदान्त कर देखो
*
प्रभु कृपा जीवन मिला, उपकार कर देखो।
तुम समर्पण प्रेम की बौछार कर देखो ।।

कोठरी काली रही  ,उजले निकल आओ।
नीतियों से आप अब व्यवहार कर देखो ।।

धर्म को बदनाम कर अब आग लगती क्यों
हुक्मरानों का  कभी आभार कर देखो ।।

भूल अपने कर्म ,बनते  भीड़ का हिस्सा ।
छात्र  गुण ही श्रेष्ठ ,अंगीकार  कर देखो ।।

पग बढ़े जो सत्य पथ पर,हो सफल जीवन ।
राह कठिनायी मिले ,स्वीकार कर देखो ।।

https://motibhavke.blogspot.com/

Sunday, December 15, 2019


धुरी

नारि धुरी परिवार की,जीवन का आधार ।
बिन उसके सूना लगे,अपना घर संसार ।।
कैसे अब ये दिन कटे,पत्नी अब नहि साथ।
बच्चों की माता बने ,लिये दायित्व माथ ।।
मासूमों को देख के,होती मन में पीर।
कैसे इनको पालती ,धरे रही तुम धीर।।
जब तक मेरे सँग रही,समझ न पाया मोल।
विधि का विधान कब टला,कड़वा सच ये बोल ।।

स्वरचित
अनिता सुधीर

Saturday, December 14, 2019


कुंडलिया
अलाव

रातें ठंडी हो रहीं ,जलने लगे अलाव ।
रूप निराले शीत के,अलग अलग हैं भाव।।
अलग अलग हैं भाव ,कहीं मौसम की मस्ती,
रहता कहीं अभाव,सड़क पर रातें कटती।
करती क्या सरकार,करे क्या खाली बातें,
हम सब करें प्रयास ,सुखद हो सबकी रातें।।
शिशिर ने दी दस्तक जब
बल पड़े हैं मस्तक पर
कोहरा चारों ओर फैला ऐसे
मानो निगलेगा  सूरज को ।
गुनगुनी धूप को मन
अब तरसने लगे।
प्रातः का अद्भुत दृश्य
ओस बन मोतियां
बिखरी  पत्तियों पर
रिमझिम फुहार बर्फ बन
मानो कोई गीत गुनगुनाती है
पानी की  छुअन
रगों में सिहरन कराती है।
खेतों मे पीली  चादर बिछी हुई
दिन छोटे,रातें लंबी हो जाएं ।
मक्के की रोटी,सरसों का साग
अब मन को भाने  लगे।
रजाई से बाहर निकलने में
हाड़  कंपकपाने लगे,
तब
सोच ये मन दहल जाए
मौसम दिखा रहा तेवर
क्या होगा उनका जो हैं बेघर
प्रकृति की अद्भूत लीला है
देखो ये कैसी विडंबना है
कोई पहाड़ों पर घूमने जाये
कोई ठंड में जान गवाएं ।
अलाव,कंबल का करें इंतजाम
सब मिल गरीबों की
शीत भगाएं।
आओ शिशिर ऋतु को
मोहक बनायें।

Friday, December 13, 2019





कीमत
कीमत का अंदाज नहीं ..

राजनीति की काली कोठर
अफवाहों का बाजार गर्म
आग लगाते नाम धर्म के!
प्राणों की आहुति से
मिली आजादी का
अब  बचा लिहाज नहीं
क्या कीमत का अंदाज नहीं !

जीवनदायिनी प्रकृति से
मिल रही जब मुफ्त हवा
अनर्थ  क्यों करते जा रहे
वृक्ष  काटते जा रहे
बिकने लगेगी मोल जब
तब करना एतराज़ नहीं
कीमत का अंदाज नहीं ..

कितनी रातें जग कर काटीं
गीले में खुद  सो कर वो
सूखे में  हमें सुलाती रही
 कष्टों में जो
हरदम साथ निभाती रही
बूढ़े हाथों की झुर्री में
लिखी संघर्षों की गाथा!
माँ को कभी करना नाराज नहीं
ममता की कीमत का अंदाज नहीं ...

कड़ी धूप में श्रम करें
राष्ट्र निर्माण में अनमोल
योगदान करें
दो रोटी को क्यों तरसें ये
इनके स्वेद कणों के
सम्मान का क्या रिवाज नहीं
क्या समाज में
इनकी कीमत का अंदाज नहीं ..

मिली हमें अनुपम सौगातें
इन पर हमको नाज बड़ा
चुका नहीं सकते इनकी कीमत
करते  रहें  सुकाज यहाँ!
हाथ पे हाथ धरे बैठे
आती तुमको क्या लाज नहीं ..
मिला है हमको ये जीवन
क्या इसके कीमत का अंदाज नहीं ...
©anita_sudhir

Thursday, December 12, 2019

मुक्तक
खामोशी से लबों को चुप कराया है जमाने ने।
जख्म सहते रहे ,तमीजदार हुए अब  घराने में।।
सह रहे घुटन औ दुश्वारियां रिश्तों के बचाने में।
कमजोर नहीं हम,नहीं सहेंगे अन्याय जमाने में।।

लहूलुहान होती रूह पर कब तक मलहम लगाऊं
सदियों से कराहती रूह को कब तक  थपथपाऊँ।
ऐसा नहीं कि मेरे तरकस में शब्दों के तीर नहीं रहते,
तुम्हारी अदालत में अपने साक्ष्य के प्रमाण क्यों लगाऊँ।

Wednesday, December 11, 2019

कहमुक़री 

बाहुपाश में जकड़े जाते,
स्वप्न लोक की सैर कराते।
बिन उसके सूनी है रतिया,
का सखि साजन ,ना सखि तकिया।

रूप सलोना सब मन भाये,
सबके ही वो काम कराये।
तड़पे सब उसके बिन ऐसे,
का सखि साजन ,ना सखि पैसे।

साथ साथ चलता वो रहता,
सीधा साधा कुछ नहि कहता।
गुण ये उसका अतिशय भाया,
का सखि साजन ,ना सखि छाया ।

विरह अग्नि  में पल पल जलती
मिलने को अब आतुर रहती
आस मिलन की  लगती सदियां
का सखि साजन?ना सखि नदियां।

तुम बिन होती है कठिनाई
तुमसे ही ये रौनक छाई
जीवन के पल करते अर्पण
का सखि साजन?ना सखि दर्पण।।
©anita_sudhir








Tuesday, December 10, 2019


10/12/19
मानवाधिकार दिवस
**

इस सभ्य सुसंस्कृत उन्नत समाज में
मानव लड़ रहा अधिकारों के लिए
क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था बनती ,सभी
सिर उठा कर जिये,समता का भाव लिए ।

शिक्षा ,कानून आजादी ,धर्म भाषा
काम  हो सबका मौलिक अधिकार
क्या कभी चिंतन कर सुनिश्चित किया
क्यों नहीं बना अब तक वो उसका हक़दार।

समता के नाम पर क्या किया तुमने
आरक्षण का झुनझुना थमा हीन साबित किया
बांटते रहे रेवड़ियाँ अपने फायदे के लिए
सब्सिडी और कर्ज माफी से उन्हें बाधित किया।

मानव अधिकार की बातें कही जाती हैं
अधिकार के नाम पर भीख थमाई जाती है
देने वाला भी खुश और लेने वाला भी खुश
इस लेनदेन में जनता की गाढ़ी कमाई जाती है।

क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था बनाई जाती है
जहां अधिकार की बातें बेमानी हो जाए
ना कोई भूखा सोए ,न शिक्षा से वंचित हो
भेदभाव मिट जाए,हर हाथ को काम मिल जाये ।

योजनाएं तो बनाते हो पर लाभ नहीं मिलता
बिचौलिए मार्ग में बाधक बन तिजोरी भरते है
कानून का अधिकार है,लड़ाई लंबी चलती है
लड़ने वाला टूट गया बाकी सब जेबें भरते है।

महंगी शिक्षा व्यवस्था है कर्ज ले कर पढ़ते है
नौकरी  गर न मिली  तो कर्ज कैसे चुकायेगें
कर्ज देने मे भी बीच के लोग कुछ  खायेंगे
बेचारा किसान  दोनो तरह से चपेटे में आएंगे।

आयोग बना देने से,एक दिवस मना लेने से
रैली निकाल लेने से ,कुछ नहीं होगा
मानव पहल तुम करो ,दूसरे के अधिकार मत छीनो
खोई हुई प्रतिष्ठा  के वापस लाने के हकदार बनो


अनिता सुधीर


गजल
वक़्त मेरे लिये कुछ निकाला करो।
काम अपने सिरे सब न पाला करो

चार दिन जिंदगी के बचे अब यहाँ,
सन्तुलन अब रहे, कुछ निराला करो ।

साँझ अब जिंदगी की यहाँ हो रही,
वक़्त को साध लो मन न काला करो।

तुम बहुत जी लिये दूसरों के लिये,
खुद कभी को जरा अब संभाला करो ।

दौड़ती ही रही जिंदगी हर घड़ी,
थाम लो अब इसे वक़्त ढाला करो।


अनिता सुधीर

हाइकु  
पथिक
**
पथिक मन 
कल्पनाओं का रथ
नव सृजन ।
**
निशा डगर
चाँद तारे पथिक 
भोर पड़ाव।
**
तन पथिक 
जीवन  अग्नि  पथ 
मृत्यु मंजिल ।
**
सच्चाई पथ 
बाधाएं झंझावात
बढ़ो पथिक ।
**

Monday, December 9, 2019

इस जमाने में हवा ऐसी चली है अब ,
होश खोकर जी रहे इन आंधियों में सब।

भेड़िये अब घूमते चारों तरफ ऐसे,
लूटते हैं बेटियों की अस्मिता !कैसे
पापियों के पाप से अब नर्क है जीवन
नोच! जिंदा लाश करते दुष्ट ये कैसे ।
फैसला हो शीघ्रता से राह निकले तब।।
इस जमाने में ..

क्यों बिना मक़सद जिये हम जा रहे ऐसे
साँस लेना जिंदगी !सोची कहाँ वैसे।
मौत के पहले किसी के काम आ पाती,
मौत भी शायद ठिठक कुछ देर रुक जाती।
बाण शब्दों के चला चुप बैठते है सब
इस जमाने में .

जल न पाए अब कभी ये बेटियां  वैसे
प्रेम उपवन हो सजा  चहका  करें ऐसे
अब यही उद्देश्य ,जीने का हमारा हो,
हो खुशी जग में  !न कोई बेसहारा हो।
भाव रखते ये सदा  हो आस पूरी अब।
इस जमाने में ..

Sunday, December 8, 2019






गीतिका 
आधार छंद- गंगोदक (मापनीयुक्त मात्रिक)
मापनी- 212 212 212 212 , 212 212 212 212
समांत- आन, पदान्त - है
बाँध टूटे नहीं धैर्य का इस तरह, ये हुआ देश का घोर अपमान है ।
जो व्यवस्था चले अब उचित रूप में,न्याय में शीघ्रता ही समाधान है ।
लूटते अस्मिता नारि की जो रहे,कोख में मार के मर्द बनते रहे,
काम अरु क्रोध में लिप्त जो नर हुये,भूल क्यों वो गये बेटियाँ मान है।
मेघ ये क्यों सदा ही बरसते रहे,आंधियों की लहर जीवनी बन चली,
आसरा जो दिये मुश्किलों में सदा,नाम के अब उन्हीं का सकल गान  है।
तत्व ये मूल भूले रहे हम सदा,त्याग जग में रहा प्रेम का सार है,
साधना वो करे श्रेष्ठतम की सदा, सभ्यता संस्कृति का जिन्हें भान है ।
भोग करते रहे इस जगत में सदा ,योग क्यों  ईश सँग
हम किये ही नहीं ,
आस सुख की लिये मोह में लिप्त हैं,नाश जो हो अहम का वही ज्ञान है।

स्वरचित
अनिता सुधीर

Friday, December 6, 2019

परिणय

मैं तुमसे प्रेम करती हूँ
तुममें अपना प्रतिबिम्ब
देखने की कोशिश
करती हूँ ।
परिणय के बंधन में बंधे
उन वचनों को ढूँढती हूँ ।
तुममें अपना बिम्ब
तलाशते संग संग
इतनी दूर चले आये ।
कभी तुममें अपना
प्रतिबिम्ब मिला
कभी वक़्त के आईने में
कितने ही प्रतिबिम्ब
बनते   बिगड़ते
गडमड नजर आए ।
कुछ संजोए है
कुछ समेटने की कोशिश
मे बिखरते नजर आए है।
वक़्त की आंधियों मे
कुछ बिम्ब धुंधले
नजर आते है,पर
मैं तुमसे प्रेम करती हूँ
उन वचनों में  बंधी
मैं अपना प्रतिबिम्ब
तुममें ही  खोजती  हूँ।

अनिता सुधीर

Thursday, December 5, 2019

पाखंड

सत्य वचन ये मानिये ,असली धन है ज्ञान।
लिप्त हुआ पाखंड यदि,होये गरल समान ।।

देवि रूप में पूज के ,करें नारि अपमान।
कैसा ये पाखंड है ,बिसरे अर्थ महान ।।

शीत लहर में मर  गया ,भिक्षुक मंदिर द्वार ।
मूरत पर गहने सजे ,.... पाखंडी संसार ।।

देख कमण्डल हस्त में ,चन्दन टीका माथ ।
साधु वेश पाखंड जो, लिये नारि का साथ ।।

लिये धर्म की आड़ वो,करते क्यों पाखंड ।
कर्मों के इन फेर में ,....भोगे मानव दंड ।।

मनुज ग्रसित पाखंड से ,लोभ रहा आधार ।
बनिये बगुला भगत नहि,करिये शुद्ध विचार ।।

पंच तत्व निर्मित जगत,चेतन जीवन सार
दूर करें पाखंड जो , मन  हो एकाकार।

Wednesday, December 4, 2019


गजल


आप की नजरें इनायत हो गयी
आप से मुझको मुहब्बत हो गयी।

इश्क़ का मुझको नशा ऐसा चढ़ा
अब जमाने से अदावत हो गयी ।

तुम मिले सारा जहाँ हमको मिला
यूँ लगे पूरी इबादत हो गयी।।

ये  नजर करने लगी  शैतानियां
होश खो बैठे  कयामत हो गयी।

जिंदगी सँग आप के गुजरा करे
सात जन्मों की हकीकत हो गयी।














Monday, December 2, 2019






कोहरे के माध्यम से आज की समस्याओं और समाधान पर लिखने का प्रयास किया है
कई शब्द अपने मे गहन अर्थ समेटे है आप की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।

कोहरा

जब उष्णता में आये कमी
अवशोषित कर वो नमी
रगों में सिहरन का
एहसास दिलाये
दृश्यता का ह्रास कराता
सफर को कठिन बनाता है
कोहरा चारों ओर फैलता जाता है।
संयम से सजग हो
निकट धुंध के  जाओ..
 और भीतर तक जाओ
कोहरे ने सूरज नहीं निगला है
 सूरज की उष्णता निगल
लेगी कोहरे को ।
सामाजिक ,राजनीतिक
परिदृश्य भी त्रास से
धुंधलाता जा रहा
रिश्तों की धरातल पर
स्वार्थ का कोहरा छा रहा
संबंधों की कम हो रही उष्णता
अविश्वास द्वेष की बढ़ रही आद्रता
कड़वाहट बन सिहरन दे रही
विश्वास ,प्रेम की  किरणें
लिए अंदर जाते  जाओ
दूर से देखने पर
सब धुंधला है
पास आते जाओगे
दृश्यता  बढ़ती जायेगी
तस्वीर साफ नजर आएगी।
दोहा गजल


मन में कोमल भाव नहि,यही प्रेम आधार।
व्यथित !जगत की रीति से,कैसे निम्न विचार।।

नफरत की आँधी चली ,बढ़ा राग अरु द्वेष,
अपराधी अब बढ़ रहे, दूषित है आचार ।

जग में ऐसे लोग जो ,करें नारि अपमान
व्याधि मानसिक है उन्हें ,रखते घृणित विकार ।

निम्न कोटि की सोच से,करते वो दुष्कर्म
लुप्त हुई संवेदना ,क्या इनका  उपचार ।

रंगहीन जीवन हुआ,लायें सुखद प्रभात,
संस्कार की नींव हो,मिटे दिलों के रार ।

स्वरचित

Sunday, December 1, 2019

 आक्रोश
नवगीत

कागज पर उतरता आक्रोश

भावों की  कचहरी  में
शब्दों के गवाह बना
कलम से सिद्ध करते दोष
और फिर हो जाते खामोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

मोमबत्तियां जल जाती हर बार
जुलूस भी निकाल लिये जाते
पर वासना से उत्पन्न
गंदी नाली के कीड़ों में
अब कहाँ बचा है होश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

बालिका संरक्षण गृह में
ही फल फूल रहे
सभी तरह के धंधे
मासूम कहाँ है सुरक्षित
मजबूरी में करती जिस्मफरोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

प्याज  निकाल रहा आँसू
गोड़से पर चल रही राजनीति
बिकने के लिये तैयार बैठे
ये  सफेदपोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

सनद रहे
हम भारत की संतान हैं
ये जन जन का आक्रोश
सदैव क्षणिक न रह पायेगा
उठ खड़ा होगा
अपने अधिकार के लिए,
व्यवस्था कब तक रहेगी बेहोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

स्वरचित
अनिता सुधीर






संसद

मैं संसद हूँ... "सत्यमेव जयते" धारण कर,लोकतंत्र की पूजाघर मैं.. संविधान की रक्षा करती,उन्नत भारत की दिनकर मैं.. ईंटो की मात्र इमार...