नवगीत
भोली सूरत उर खोटा
नीयत पर चढ़ नीम करेला
बींध रहा कबसे तन मन
प्रश्न निरर्थक डेरा डाले
फाँस बने हैं गरदन की
मर्यादा पर अमर बेल चढ़
घाव बढ़ाती मर्दन की
कंटक के तरुवर को सींचा
पुष्प महकता कब उपवन।।
क्षुद्र विचारों की गपशप थी
भूल गए वो भावों को
अफवाहों का बाजार गरम
शूल चुभोया पाँवो को
बिल्ली खिसियानी घूम रही
तोड़े छींका हर आँगन।।
काँव काँव के ठेके में है
भोली सूरत उर खोटा
गिरगिट लज्जा से देख रहा
नाम बड़ा दर्शन छोटा
वैचारिक अतिक्रमण का फिर
ध्वजा लिए चलता अनबन।।
अनिता सुधीर आख्या