गीतिका
खोखली सी नींव को ही जब बनाते आजकल।
मौन हों संवाद पूछें क्यों डराते आजकल।।
जो हृदय की वेदना जग से छुपाने में लगे,
वह स्वयं की मुश्किलों को ही बढ़ाते आजकल।।
दूर कर अपनी सरलता नित उलझते जा रहे
चित्र भावी का भयानक यह दिखाते आजकल।।
नीति नियमों को हवा में जो उड़ाते जा रहे
दोष नित सरकार के वह ही गिनाते आजकल।।
गर्जना कर जो बिना मौसम बरसते जा रहे
रीतियों के वस्त्र को कैसे सुखाते आजकल।।
काल भी आभार कहता सत्पुरुष के हो ऋणी
जो बने आदर्श सबके पथ बताते आजकल।।
अनिता सुधीर आख्या
लखनऊ
बहुत बहुत सुन्दर ग़ज़ल
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