दोष
पुरुषों को बड़ी आसानी
से सब दोष दे देते हैं
माँ-बेटी-बहन क्या तुम्हारे घर में
नही कह देते हैं...
क्या कहोगे जब
नारी ही नारी की दुश्मन बन जाए
बाग का माली ही
कलियों का भक्षक बन जाए।
नारी होकर जब नारी ही
नारी का मर्म समझ न पायी
कर सारे कृत्य घिनौने
उसको लज्जा कब आयी
सारी नारी जाति को
शर्मिंदा कर के रख दिया
सीता दुर्गा के देश मे
जब नंगा खेल रच दिया
समाज कहाँ जा रहा,
क्या है परिवार के मायने
अब कौन कहाँ सुरक्षित है
यक्ष प्रश्न है सामने ..
अनिता सुधीर आख्या
आपकी कविता का संदर्भ तो मैं नहीं समझ सका किन्तु आपका भाव स्पष्ट है जिससे असहमत नहीं हुआ जा सकता। सर्वाधिक कष्ट का विषय यही है कि प्रायः स्त्री ही स्त्री की व्यथा को नहीं समझती एवं अनेक अवसरों पर कोई स्त्री ही अन्य स्त्री को हानि पहुँचाती है। यह कटु सत्य है। आपने स्वयं स्त्री होकर इसे अभिव्यक्त करने का साहस किया, यह बहुत बड़ी बात है।
ReplyDeleteसादर आभार आपका जो आप रचना के मर्म तक पहुंचे
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