आशा की किरण
शाम के मदमस्त माहौल में खुले लॉन में पार्टी का आयोजन चल रहा था। उपस्थित लोग संगीत-नृत्य और कई तरह के पकवानों का आनंद ले रहे थे।
तभी बाहर मुख्यद्वार पर नजर पड़ी,वहाँ कुछ बच्चे संगीत की धुन पर नृत्य कर रहे थे और अपने हिस्से की खुशियाँ टटोल रहे थे।सबकी निगाहें उधर उठ गयीं।
तभी बेटे की आवाज आई ! माँ ये बच्चे बाहर क्यों डांस कर रहे?
मुग्धा अपने बेटे प्रतीक की जिज्ञासा शांत करते हुए बोली कि सबकों तो नही बुला सकते न अंकल अपनी पार्टी में,इसीलिए बेटा ये बाहर ही डांस कर रहे।
सब अपने मे मस्त हो गए ,लेकिन प्रतीक का बालमन बाहर ही अटका रहा।
खाने का समय आया , वो बच्चे भोजन की तरफ टकटकी लगाए थे।बार-बार भगाने पर भी आ रहे थे।
मुग्धा ने प्रतीक को भोजन निकाल कर दिया।
मुग्धा------कहाँ जा रहे हो बेटा,?
प्रतीक----- मम्मी वो अंदर नही आ सकते ,मैं तो बाहर जा सकता हूँ और खाना खिला सकता हूँ।I
आसपास के लोग प्रतीक के जवाब से निःशब्द और भावुक हो गए।
बड़ों को ये ख्याल भी नही आया और व्यवहारिक बने रहे
जबकि प्लेटों मे इतना खाना बेकार जा रहा था।
मन के कोने से आशा की किरण ने हौले से दस्तक दी कि जब तक इन बच्चों में संवेदनशीलता कायम है तब तक समाज का सुखद भविष्य सुनिश्चित है..
अनिता सुधीर आख्या
उम्दा कथानक
ReplyDeleteसुन्दर लेखन
सादर आभ्गर आ0
Deleteबेहतरीन लघुकथा ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद आ0
Deleteसादर आभार आ0
Deleteहार्दिक आभार आ0
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर कथानक, अभिनंदन आदरणीया ।
ReplyDeleteविचारणीय विषय पर सराहनीय लघुकथा ।
ReplyDeleteयही वह संवेदना है जिसे अक्षुण्ण बनाये रखने की आवश्यकता है। खेद का विषय है कि आज समाज में यह संवेदना दिन-दिन क्षीण होती जा रही है। वयस्क चाहें तो बालकों से इतना तो सीख ही सकते हैं।
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