मैं संसद हूँ...
"सत्यमेव जयते" धारण कर,लोकतंत्र की पूजाघर मैं..
संविधान की रक्षा करती,उन्नत भारत की दिनकर मैं..
ईंटो की मात्र इमारत कब हूँ,प्राण देश के मुझमें बसते
मान लिए निर्माताओं का,दिव्य देश का अभ्यांतर मैं।।
तार-तार जब गरिमा होती,बहा रुधिर फिर कातरता से
ज़ार ज़ार कर शुचिता रोती,राजनीति की जर्जरता से..
नेताओं का शोर शराबा,सत्य कहाँ पहचाना जाता
नित्य विवश हो आहत होती,अपनों की ही अक्षमता से।
धूमिल होती नित्य प्रतिष्ठा,दिन कैसे यह देख रही मैं
आज़ादी का अर्थ नया यह,कैसे कैसे वार सही मैं
प्रजातंत्र की लाज बचा लो,राजनीति का मान बचा लो
लौटा दो स्वर्णिम पल फिर से,वैभव का इतिहास कही मैं।।
अनिता सुधीर आख्या
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