गीतिका
हृदय की कोठरी काली,तमस को नित मिटाना है।
किसी मजबूर के द्वारे,नया दीपक जलाना है।।
नहीं अपमान मूरत का,कहीं भी क्यों इन्हें रखना
विसर्जन रीति हो उत्तम,प्रभावी यह बनाना है।।
मृदा हो मूर्ति की ऐसी,घुले जो नित्य पानी में
सुरक्षित जैवमंडल हो,प्रदूषण से बचाना है।।
जले नित वर्तिका मन की,रहे आलोक हर पथ पर
तभी जगमग दिवाली नित,यही अब अर्थ पाना है।।
लला सिय साथ आये जो,सजी प्रभु राम की नगरी,
विराजें चेतना में अब,नियम शुचिदा निभाना है।।
कहें हर बार सब ये ही,निभाते कौन मन से कब
उचित ही आचरण रखिये,यही सच्चा खज़ाना है।।
अनिता सुधीर आख्या
शुभकामनाएं दीप पर्व पर | सुन्दर रचना |
ReplyDeleteसादर आभार
Deleteमेरी रचना शामिल करने के लिए हार्दिक आभार
ReplyDeleteदीपोत्सव के अवसर पर रची गई आपकी यह रचना मैंने कुछ विलम्ब से पढ़ी। ग़ज़ल के प्रारूप में रचित इस रचना का प्रत्येक शेर (अथवा मुक्तक) सार्थक है तथा अपने समेकित रूप में यह रचना श्रेष्ठता के शिखर को स्पर्श करती है। अभिनंदन आपका।
ReplyDeleteसादर अभिवादन आ0
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