Tuesday, September 22, 2020

गीत

 मैं धरा मेरे गगन तुम

अब क्षितिज हो उर निलय में


प्रेम आलिंगन मनोरम

लालिमा भी लाज करती

पूर्णता भी हो अधूरी

फिर मिलन आतुर सँवरती

प्रीत की रचती हथेली

गूँज शहनाई हृदय में।।

मैं धरा..


धार बन चलती चली मैं

गागरें तुमने भरी है

वेग नदिया का सँभाले

धीर सागर ने धरी है

नीर को संगम तरसता

प्यास रहती बूँद पय में।।

मैं धरा..


नभ धरा फिर मान रखते

तब क्षितिज की जीत होती

रंग भरती चाँदनी जो

बादलों से प्रीत होती

भास क्यों आभास का हो

काल मृदु नित पर्युदय में।।

©anita_sudhir

18 comments:

  1. धार बन चलती चली मैं

    गागरें तुमने भरी है

    वेग नदिया का सँभाले

    धीर सागर ने धरी है

    नीर को संगम तरसता

    प्यास रहती बूँद पय में।।

    मैं धरा..

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  2. जी आ0 हार्दिक आभार

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 22 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. रंग भरती चाँदनी जो
    बादलों से प्रीत होती
    भास क्यों आभास का हो

    –बेहद खूबसूरत चित्रण

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  5. बेहद सुंदर और मनभावन सृजन अनीता जी

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  6. बहुत ही सुंदर रचना

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  7. आदरणीया अनिता सुधीर जी, नमस्ते👏! लाजवाब सृजन! निस्तब्ध हूँ! शब्द कम पड़ रहे हैं। कुछ पंक्तियाँ:
    धार बन चलती चली मैं
    गागरें तुमने भरी है
    वेग नदिया का सँभाले
    धीर सागर ने धरी है
    नीर को संगम तरसता
    प्यास रहती बूँद पय में।। --ब्रजेन्द्रनाथ

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  8. बहुत ही मधुर सुगठित रचना है |

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