नवगीत
कलम भरे रखती है कोश,
कागज पर उतरे आक्रोश।
देखा समाज में जब त्रास
निकल पड़ी मन की भड़ास।
भावों की कोर्ट कचहरी में,
शब्दों की तप्त दुपहरी में।
रहता है दो दिन का जोश,
फिर हो जाते सब खामोश ।
कलम ..
कागज पर उतरे आक्रोश।
यही कहानी है हर बार ,
भुला चुके ये सब संस्कार ।
जलतीं मोमबत्ती हजार ,
जुलूस में रहे भीड़ अपार।
गंदी नाली के वो कीच,
कहाँ बचा उनमें अब होश।
कलम ..
कागज पर उतरे आक्रोश ।
संरक्षण गृहों के विवाद,
बढ़ती है इनकी तादाद।
कहाँ सुरक्षित है मासूम,
अपराधियों का है हुजूम।
मजबूरी में जिस्मफरोश,
करवाते ये सफेदपोश ।
कलम ..
कागज पर उतरे आक्रोश ।
हम भारत की हैं संतान ,
कमजोर नहीं हमको जान।
लेना होगा ये अधिकार,
नहीं रहे अब भ्रष्टाचार ।
व्यवस्था रहे क्यों बेहोश
क्यों बैठो अब खामोश
कलम..
कागज पर उतरे आक्रोश ।
अनिता सुधीर
लखनऊ
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-01-2020) को "तान वीणा की माता सुना दीजिए" (चर्चा अंक - 3595) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी आ0 हार्दिक आभार
Deleteसंरक्षण गृहों के विवाद,
ReplyDeleteबढ़ती है इनकी तादाद।
कहाँ सुरक्षित है मासूम,
अपराधियों का है हुजूम।
मजबूरी में जिस्मफरोश,
करवाते ये सफेदपोश ।
बेहतरीन सृजन अनीता जी ,सादर
जी सादर आभार
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