नवगीत
एकाकीपन
घर पीछे बड़बेर
सुना बेरों से बतियाती।।
अलसायी सी रात
व्यथित हो चौखट पर बैठी
पोपल मुख निस्तेज
करे यादों में घुसपैठी
काँप उठी फिर श्वास
तभी बंधन को बहलाती।।
पतझड़ का आतिथ्य
कराता शूलों को पीड़ा
जीवन त्यागे राग
उदासे सुर भूले क्रीड़ा
ओसारे की खाट
व्यर्थ में ही शोर मचाती।।
दीवारों के हास्य
नयन क्रंदन के घेरे में
बौना हो अस्तित्व
फँसा जीवन के फेरे में
एकाकी की पीर
सदा भावों को सहलाती।।
अनिता सुधीर आख्या
लखनऊ
मर्मस्पर्शी काव्याभिव्यक्ति जिसे काव्यमय भावाभिव्यक्ति कहा जाना अधिक उपयुक्त होगा। इस नवगीत का एक-एक शब्द किसी भी संवेदनशील हृदय को पिघला देने तथा नेत्र सजल कर देने में सक्षम है।
ReplyDeleteआ0 रचना के मर्म तक पहुंचने के लिए हृदयतल से आभार
ReplyDeleteअति उत्तम अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteमर्म को स्पर्श करती सुंदर रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आ0
Deleteपरिवार में रहकर भी एकाकी रह जाना कैसा पीड़ादायक होता है, कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है, ओसारे की खाट ने सब बयान कर दिया
ReplyDeleteरचना के मर्म तक पहुंचने के लिए हार्दिक आभार
Deleteसीधे हृदय तल की गहराइयों को स्पर्श करती हुई यह कविता बड़ी सारगर्भित है।
ReplyDeleteसादर प्रणाम आ0
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