बरगद और बोनसाई
वो बरगद का पेड़ ,वो अपना गांव,
वो गोल चबूतरा,वो पेड़ की ठंडी छांव ।
बचपन मे सुना था बहुत पुराना है पेड़
अपने मे युग समेटे वो बरगद का पेड़ ।
पेड़ों पर पड़ते थे झूले, लगती गांव की चौपाल वहाँ
रेडियो से मिलता था,दुनिया जहान का हाल वहाँ ।
बच्चों की धमाचौकड़ी से वो चबूतरा आबाद था ,
काकी फूआ ने बांध कलावा वटवृक्ष को
मांगा "सावित्री "सा अमर सुहाग था ।
सीखा बरगद की जटाओं ( prop roots) से
जितना ऊपर उठते जाओ,अपनी मिट्टी से जुड़े रहो
दे संबल वटवृक्ष को ,जटायें कहती एक हो के रहो ।
छूटा गाँव ,छूटी बरगद की छांव
यादोँ में है अब वो बचपन का गाँव ।
......अब घर मे बरगद का बोनसाई
मिट्टी की कहतरी मे, सुंदरता मनभाई ।
ताप से पत्ते झड जाए ,तो रिश्तों में ताप कहाँ
मनभावन तो है वो ,पर उसमें वो छाँव कहाँ ।
कद छोटा करे जीवन का ,लोग कहे,पर
मैं हो लेती आल्हादित देख बोनसाई को
संजो लेती यादें ,जी लेती बचपन को ।
वो बरगद का पेड़, वो अपना गांव
कितने रिश्तों का साक्षी वो बरगद की छाँव ।
.. बरगद के पेड़ अब अस्तित्व में कम ही नजर आते हैं.. अपनी गांव की पुरानी यादों से बरगद के पेड़ को आपने जिंदा कर दिया.... सत्य है कई युगों को समेटे तटस्थ खड़ा रहता है। हर आंधी तूफान से बच कर निकल जाते हुए. बोनसाई से जुड़ी पंक्तियां जोड़कर अपने कविता को और भी सार्थक बना दिया बहुत ही अच्छी रचना
ReplyDeleteआप की इतनी खूबसूरत प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई ,सादर आभार
Deleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteजी शुक्रिया
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