Saturday, November 30, 2019

शहर

आधुनिक होते ये शहर..

खेतों में मकान की फसलें
गुम होती पगडंडियां
विकसित होते महानगर
खंडहर होते धरोहर
और आधुनिक होते ये शहर..

जीवन की आपाधापी में
बेबस सूरतें लिये
दौड़ते भागते लोग
चाहे हो कोई भी प्रहर
और आधुनिक होते ये शहर..

बहुमंजिली इमारतों में
अजनबी हर इंसान
स्वार्थ पर टिके रिश्ते
भावनायें हो रही पत्थर
और आधुनिक होते ये शहर..

धुआँ छोड़ते कारखाने
वाहनों का धुआँ
कटते जा रहे  पेड़
हवा में  फैलता जहर
और आधुनिक होते ये शहर..

बढ़ती जा रहा  फूहड़ता
आये दिन  निर्भया कांड
घटना का वीडियो बनाते लोग
भूलते जा रहे अपने संस्कार
और आधुनिक होते ये शहर..

लुप्त  होते गौरैया के घोंसले
वृद्धाश्रम में बढ़ी भीड़
पाप का भार से मैली होती नदियाँ
टूटा समाज पर कहर
और आधुनिक होते ये शहर..

अब चले ऐसी लहर
जीयें लोग नहीँ सिहर सिहर
खिले पुष्प अब निखर निखर
हो ये मेरे सपनों का शहर
ऐसा आधुनिक  हो मेरा शहर..

अनिता सुधीर













4 comments:

  1. बहुत सुंदर और सार्थक कविता।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    २ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।,

    ReplyDelete
  3. वाह!!सुंदर अभिव्यक्ति !

    ReplyDelete

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