मुक्तक
खामोशी से लबों को चुप कराया है जमाने ने।
जख्म सहते रहे ,तमीजदार हुए अब घराने में।।
सह रहे घुटन औ दुश्वारियां रिश्तों के बचाने में।
कमजोर नहीं हम,नहीं सहेंगे अन्याय जमाने में।।
लहूलुहान होती रूह पर कब तक मलहम लगाऊं
सदियों से कराहती रूह को कब तक थपथपाऊँ।
ऐसा नहीं कि मेरे तरकस में शब्दों के तीर नहीं रहते,
तुम्हारी अदालत में अपने साक्ष्य के प्रमाण क्यों लगाऊँ।
खामोशी से लबों को चुप कराया है जमाने ने।
जख्म सहते रहे ,तमीजदार हुए अब घराने में।।
सह रहे घुटन औ दुश्वारियां रिश्तों के बचाने में।
कमजोर नहीं हम,नहीं सहेंगे अन्याय जमाने में।।
लहूलुहान होती रूह पर कब तक मलहम लगाऊं
सदियों से कराहती रूह को कब तक थपथपाऊँ।
ऐसा नहीं कि मेरे तरकस में शब्दों के तीर नहीं रहते,
तुम्हारी अदालत में अपने साक्ष्य के प्रमाण क्यों लगाऊँ।
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